पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६८०

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अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में रूपान्तरण ६७७ . . . मन में, बल्कि श्रम के प्राचारों की मद में भी कुछ नयी पूंजी लगानी पड़ेगी। लेकिन यह भी मुमकिन है कि वह १०० मजदूरों से ८ घण्टे के बजाय १२ घण्टे रोजाना काम लेने लगे। तब श्रम के जो पौधार पहले से मौजूद थे, वे ही काफी होंगे। अन्तर केवल यह होगा कि वे पहले से ज्यादा तेजी के साथ खर्च हो जायेंगे। इस प्रकार श्रम-शक्ति के पहले से अधिक तनाव से उत्पन्न प्रषिक श्रम से अधिक पैदावार और अधिक मूल्य का उत्पादन हो सकता है (अर्थात् संचय की विषय-वस्तु में) वृद्धि हो सकती है, पर उसके लिये पूंजी के स्थिर भाग में तबनुरूप वृद्धि न करनी पड़े। निस्सारक उद्योगों -सानों प्रावि-में पेशगी लगायी जाने वाली पूंजी में कच्चा माल शामिल नहीं होता। इन उद्योगों में श्रम की विषय-वस्तु किसी पूर्वकालिक श्रम की पैदावार नहीं होती, बल्कि वह प्रकृति से मुफ्त में मिल जाती है, जैसे पातुएं, खनिज पदार्य, कोयला, पत्पर इत्यादि। ऐसे उद्योगों में स्थिर पूंजी में प्रायः केवल श्रम के मौजार ही शामिल होते है, जो बिना किसी कठिनाई के पहले से अधिक श्रम का अवशोषण कर सकते हैं (जैसा कि उस समय होता है, जब मजबूरों से दो पालियों में दिन के साथ-साथ रात में भी काम कराया जाता है)। अन्य बातों के समान रहते हुए, जितना अधिक श्रम खर्च किया जायेगा, पैदावार की राशि तथा मूल्य उसके अनुलोम अनुपात में बढ़ते जायेंगे। जैसा कि उत्पादन के पहले दिन देखा गया था, उपज के वे मूल निर्माता, जो अब पूंजी के भौतिक तत्वों के सृजनकर्ता बन गये हैं। अर्थात् मनुष्य और प्रकृति, -अब भी साथ-साथ काम करते हैं। श्रम-शक्ति की प्रत्यास्थता के प्रताप से स्थिर पूंजी में पहले से कोई वृद्धि किये बिना भी संचय के क्षेत्र का विस्तार हो जाता है। खेती में जब तक पहले से अधिक बीज और साब मुहैया नहीं किये जाते, तब तक पहले से ज्यादा समीन को बोता-बोया नहीं जा सकता। परन्तु जब एक बार बीज और खाद की व्यवस्था कर दी जाती है, तो परती को केवल यांत्रिक ढंग से तैयार करने का भी पैदावार पर पाश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। इस तरह, गितने मजदूर पहले काम करते थे, उतने ही मजदूर अब भी पहले से अधिक मात्रा में श्रम करके धरती की उर्वरता को बढ़ा देते हैं, और इसके लिये श्रम के प्राचारों पर कोई नयी कम नहीं खर्च करनी पड़ती। एक बार फिर हम यह देखते हैं कि किसी नयी पूंजी के हस्तक्षेप के बिना मनुष्य प्रत्यक रूप से प्रकृति पर प्रभाव गलकर संचय में तुरन्त वृद्धि कर सकता है। अन्त में, वो कारखानों का उद्योग कहलाता है, उसमें जब-जब पहले से अधिक बम से काम लेना होता है, तब हर बार तदनुरूप पहले नये कच्चे माल का प्रबंध करना पड़ता है। लेकिन उसके लिये मम के नये पोबार अनिवार्य रूप से प्रावश्यक नहीं होते। और चूंकि कारखानों के उद्योग को कच्चा माल और भमके पौवार की सामग्री निस्सारक उद्योगों तवा खेती से मिलती है, इसलिये उसे उस अधिक पैदावार से भी लाभ पहुंचता है, जिसे निस्सारक उचोगों तवा ती ने नयी पूंजी लगाये बिना ही तैयार कर दिया है। इस सब का सामान्य परिणाम यह निकलता है कि धन के दो मूल स्रष्टानों का-प्रर्थात् मन-शक्ति और भूमि का-अपने साथ समावेश करके पूंजी विस्तार करने की एक ऐसी प्राप्त कर लेती है, जिसके द्वारा वह अपने संचय के तत्वों को उन सीमामों से भी पागे तक परिवर्षित कर सकती है, वो लगता है कि स्वयं उसके परिमाण के कारण इन तत्वों पर लग गयी थी, मा को पहले से उत्सारित उत्पादन के उन साधनों के मूल्य तथा राशि के कारण उनपर लग गयी थी, जिनमें यह पूंजी निहित होती है। .