माल - . . के अस्तित्व की एक अवस्था मात्र होगा, और दूसरे हमारे कहने का यह मतलब होगा कि म्यूटीरिक अम्ल भी CHO, से बना है। इसलिए, दो पदार्थों का इस तरह समीकरण करके हम उनकी रासायनिक बनावट को तो व्यक्त करेंगे, मगर उनके अलग-अलग शारीरिक रूपों की उपेक्षा कर देंगे। अगर हम यह कहते हैं कि मूल्यों के रूप में माल मानव-श्रम के जमाव मात्र हैं, तो यह सच है कि हम अपने विश्लेवण द्वारा उन्हें प्रमूर्त मूल्य में बदल गलते हैं, लेकिन इस मूल्य को हम इन मालों के शारीरिक रूप के अलावा कोई और रूप नहीं देते। किन्तु जब एक माल का दूसरे माल के साथ मूल्य का सम्बंध स्थापित होता है, तब यह बात नहीं होती। यहां एक माल दूसरे माल के साथ अपने सम्बंध के कारण ही मूल्य के रूप में सामने प्राता है। कोट को कपड़े का सम-मूल्य बना कर हम कोट में निहित श्रम का कपड़े में निहित श्रम के साथ समीकरण करते हैं। अब यह बात तो सच है कि सिलाई, जिससे कोट तैयार होता है, बुनाई से, जिससे कि कपड़ा तैयार होता है, भिन्न प्रकार का एक उपयोगी मूर्त श्रम है। लेकिन जब हम सिलाई का बुनाई के साथ समीकरण करते हैं, तो हम सिलाई को उस चीज में बदल गलते हैं, जो दोनों प्रकार के श्रम में सचमुच समान है, अर्थात् हम उसे मानव-श्रम के उनके समान स्वरूप में परिणत कर देते हैं। अतः इस घुमावदार ढंग से यही तव्य व्यक्त किया जाता है कि जहां तक बुनाई का श्रम भी मूल्य बुनता है, वहां तक उसमें और सिलाई के श्रम में कोई भेद नहीं है, और इसलिए वह भी अमूर्त मानव-श्रम है। यह केवल अलग-अलग ढंग के मालों की सम-मूल्यता की अभिव्यंजना ही है, जो मूल्य का सृजन करने वाले श्रम के विशिष्ट स्वरूप को सामने ले पाती है। और यह काम वह अलग-अलग ढंग के मालों में निहित अलग-अलग प्रकार के श्रम को सचमुच प्रमूर्त मानव-श्रम होने के उनके समान गुण में परिणत करके पूरा करती है। लेकिन कपड़े का मूल्य जिस श्रम से बना है, उसके विशिष्ट स्वरूप को अभिव्यंजना से प्रागे भी किसी चीज की भावश्यकता है। गतिमान मानव-श्रम-शक्ति, अथवा मानव-श्रम मूल्य को उत्पन्न करता है, किन्तु वह स्वयं मूल्य नहीं होता। वह केवल अपनी पिण्डीभूत अवस्था में ही मूल्य बनता है, जब कि वह किसी वस्तु की शकल में मूर्त रूप धारण कर लेता है। मानव- श्रम के जमाव के रूप में कपड़े मूल्य को व्यक्त करने के लिए यह जरूरी है कि वह मूल्य . . ख्यातिनामा फ्रैंकलिन विलियम पेटी के बाद पाने वाले उन पहले अर्थशास्त्रियों में थे, जो मूल्य की प्रकृति को समझ पाये थे। उन्होंने लिखा है : 'व्यापार चूंकि सामान्यतया श्रम के साथ श्रम के विनिमय के सिवा और कुछ नहीं होता, इसलिए यह सर्वथा उचित बात है कि सभी चीजों का मूल्य ... श्रम के द्वारा मापा जाता है।" ("The Works of B. Franklin, etc.", edited by Sparks, Boston, 1836, खण्डं २, पृ० २६७।) फ्रैंकलिन में यह चेतना नहीं है कि हर चीज के मूल्य का श्रम के रूप में हिसाब लगाकर वह श्रम के जिन अलग-अलग प्रकारों का विनिमय हो रहा है, उनके आपसी भेद की अवहेलना किये दे रहे है और इस तरह उन सब को समान मानव-श्रम में बदले डाल रहे हैं। लेकिन सचेत न होते हुए भी वह उसे कह जाते हैं। पहले वह “एक श्रम" की चर्चा करते है, फिर "दूसरे श्रम" की और अन्त में हर चीज के मूल्य के सार-तत्त्व के रूप में बिना कोई विशेषण जोड़े श्रम का जिक्र करते है। " 5-45
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