अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में रूपान्तरण ६७५ , पूंजीवादी उत्पादन की प्रगति के साथ-साथ खाने-पीने की वस्तुओं में इतनी ज्यादा मिलावट होने लगी कि टौम्पसन का प्रावर्श मनावश्यक बन गया। १८ वीं सदी के अन्त में और १९ वीं सदी के पहले बस वर्षों में अंप्रेच काश्तकारों और बीवारों ने जबर्दस्ती मजबूरी को उसकी निरपेक्ष रूप से प्रल्पतम सीमा पर पहुंचा दिया। वह इस तरह कि वे खुद तो खेतिहर मजदूरों को मजदूरी की शकल में अल्पतम से भी कम देने लगे, और बाकी पैसा मजदूरों को वर्ष की भोर से सार्वजनिक सहायता के रूप में मिलने लगा। मजदूरी की बरें "कानूनी ढंग से" निश्चित करने में अंग्रेस समीवार कैसे मसखरेपन से काम लेते हैं, इसकी एक मिसाल देखिये : “मि० बर्क ने बताया है कि नोरफोक के खमींदारों ने जिस समय मजबूरी की बर निश्चित की थी, उस समय वे रात का खाना खा चुके थे। पर बस के जमींदारों ने १७९५ में जब स्पीनहमले में दूरी की दर से की, तो उस समय, मालूम पड़ता है, उनका यह खयाल था कि मजदूरों को रात का खाना नहीं खाना चाहिये वहां उन्होंने यह फैसला किया कि जिन दिनों एक गैलन या भाषा पेक वाली ८ पौड ११ पौंस की डबल रोटी का भाव १ शिलिंग हो, उन दिनों एक मजदूर की (साप्ताहिक) प्राय ३ शिलिंग होनी चाहिये, और सबल रोटी का भाव बढ़ने के साथ-साथ मजदूरी भी बढ़ती रहनी चाहिये । पर जब रोटी का भाव १ शिलिंग ५ पेन्स के ऊपर चढ़ने लगे, तब उसके २ शिलिंग पर पहुंचने तक मजदूरी को बराबर घटाते जाना चाहिये। २ शिलिंग का भाव हो . ... . ('गरीबों की अवस्था, या इंगलैण्ड के श्रमिक वर्गों का इतिहास , इत्यादि') में बड़े जोरदार ढंग से मुहताजखानों के निरीक्षकों को सलाह दी है कि उन्हें यह रमफ़ोर्ड-मार्का भिखारियों का शोरबा इस्तेमाल करना चाहिये ; और साथ ही उन्होंने शिकायत के अन्दाज़ में अंग्रेज़ मजदूरों को आगाह किया है कि " बहुत से गरीब लोग, खास कर स्कोटलैण्ड में , महीनों जई का सत्तू और जौ का सत्तू केवल पानी में घोलकर और नमक मिलाकर पीते जाते हैं और उसी के सहारे जिन्दा रहते हैं और बहुत आराम से जिन्दा रहते हैं" ("and that very comfortably") (उप० पु०, खण्ड १, पुस्तक १, अध्याय २, पृ० ५०३)। १६ वीं सदी में भी इसी प्रकार की बातें सुनने को मिलती हैं। " (अंग्रेज़ खेतिहर मजदूरों ने) पाटे का अत्यन्त स्वास्थ्यप्रद मिश्रण खाने से इनकार कर दिया है. स्कोटलैण्ड में, जहां लोग ज्यादा शिक्षित है, शायद यह पूर्वग्रह नहीं 974T GAT" (Charles H. Parry, M. D., “The Question of the Necessity of the Existing Corn Laws Considered" [चार्ल्स एच० पैरी, एम० डी०, 'अनाज सम्बंधी वर्तमान कानूनों की आवश्यकता के प्रश्न का विवेचन'], पृ० ६६)। किन्तु इन्हीं पैरी की यह भी शिकायत है कि ईडेन के समय (१७६७) में अंग्रेज़ मजदूर की जो हालत थी, उसके मुकाबले में अब (१८१५ में) उसकी हालत बहुत ज्यादा खराब हो गयी है। जीवन-निर्वाह के साधनों में मिलावट की जांच करने के लिए जो अन्तिम संसदीय प्रायोग नियुक्त किया गया था, उसकी रिपोर्टों से पता चलता है कि इंगलैण्ड में दवाइयों तक में मिलावट की जाती है, और यह बात अपवाद नहीं, बल्कि नियम सी बन गयी है। मिसाल के लिये, लन्दन के ३४ दवाफ़रोशों के यहां से अफ़ीम के ३४ नमूने खरीदे गये, तो पता चला कि उनमें से ३१ में पोस्त की गेड़ी, गेहूं का माटा, गोंद, मिट्टी, रेत मादि मिले हुए थे। कुछ नमूनों में तो अफीम का एक कण भी नहीं था। - 43*
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