अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में रूपान्तरण ६७३ . सकता था। . इस मूल्य के भी नीचे गिरा देने के प्रयत्नों का इतना अधिक महत्व होता है कि हम बरा रुककर इस विषय पर विचार किये बिना नहीं रह सकते। वस्तुतः कुछ सीमानों के भीतर इस प्रकार के प्रयल मजदूर के प्रावश्यक उपभोग के कोष को पूंजी के संचय के कोष में परिणत कर देते हैं। जान स्टुअर्ट मिल ने कहा है: "मजबूरी में कोई उत्पादक शक्ति नहीं होती, मजदूरी उत्पादक शक्ति का दाम होती है। श्रम के साथ-साथ मजदूरी का मालों के उत्पादन में कोई भाग नहीं होता, जैसे मोजारों के साथ-साथ प्रौबारों के दाम का उसमें कोई भाग नहीं होता। यदि बम को बिना खरीदे हासिल करना सम्भव होता, तो मजदूरी के बगैर ही काम चल "1 लेकिन यदि मजदूरों के लिये केवल हवा खाकर जिन्दा रहना मुमकिन होता, तो उनको किसी भी दाम पर खरीदा नहीं जा सकता था। इसलिये, गणित की दृष्टि से, मखदूरों की लागत की सीमा यह है कि वह शून्य के बराबर हो जाये; पर यह सीमा सदा पहुंच के बाहर रहती है, हालांकि हम सदा उसके अधिकाधिक निकट पहुंच सकते हैं। पूंजी की सदा यह प्रवृत्ति होती है कि श्रम की लागत को खबर्दस्ती इस शून्य की तरफ धकेलने की कोशिश करे। जब १८ वीं सदी का एक लेखक, जिसको हम पहले भी अक्सर उद्धृत कर चुके हैं और जिसने "Essay on Trade and Commerce" ('व्यापार और वाणिज्य पर एक निबंध' ) लिखा है, यह घोषणा करता है कि इंगलग की ऐतिहासिक भूमिका अंग्रेजों की मजदूरी को जबर्दस्ती घटाकर फांसीसियों और रच लोगों के स्तर पर पहुंचा देना है, तब वह वास्तव में अंग्रेजी पूंजीवार की पात्मा के गूढ़तम रहस्य को खोलकर रख देता है। अन्य बातों के अलावा, इस लेखक ने बड़े भोलेपन के साथ यह भी लिखा है : “परन्तु यदि हमारे यहां के गरीब लोग" (यह मजदूरों का पारिभाषिक नाम है) "विलास का जीवन व्यतीत करेंगे, तो. बाहिर है कि श्रम अनिवार्य रूप से महंगा हो जायेगा जब हम इसपर विचार करते हैं कि कारखानों में काम करने वाली पाबाबी विलास की कैसी-कैसी वस्तुओं का उपभोग करती है, जैसे ब्रांगे, जिन, चाय, चीनी, तेज बियर, पटसन के छपे हुए कपड़े, नसवार, तम्बाकू, मावि, प्रावि"।' इस लेखक ने नोम्पटनशायर के एक . . विवेशी फल, 1 J. Stuart Mill, “Essays on Some Unsettled Questions of Political Eco- nomy" (जान स्टुअर्ट मिल , 'अर्थशास्त्र के कुछ अनिर्णीत प्रश्नों पर निबंध'), London, 1844, पृ. ६० . "An Essay on Trade and Commerce' ('व्यापार और वाणिज्य पर एक निबंध'), London, 1770, पृ० ४। इसी प्रकार, दिसम्बर १८६६ और जनवरी १८६७ के "The Times' ने अंग्रेज खानों के मालिकों के हृदय के कुछ भावों को प्रकाशित किया है। इन लेखों में बेल्जियम के उन खान-मजदूरों के सुखी जीवन का वर्णन किया गया है, जो उससे अधिक न तो मांगते थे और न पाते थे, जो उनके लिये अपने "मालिकों" के हित में जीवित रहने के वास्ते बिल्कुल जरूरी था। बेल्जियम के मजदूरों को बहुत सारे कष्ट उठाने पड़ते हैं, मगर यह तो हद है कि "The Times" में उनकी प्रादर्श मजदूरों के रूप में चर्चा की जाये ! १८६७ के फ़रवरी महीने के शुरू में "The Times' को इसका जवाब मिला: मारशियेन्न में बेल्जियन खान-मजदूरों ने हड़ताल कर दी, जिसे गोलियों से दबाया गया। 'उप० पु०, पृ. ४, ४६ । 43-45
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