पूंजीवादी उत्पादन व्यक्त किया था और धन के जन्म-काल की प्रसव पीड़ा के बारे में एक मण के लिये भी कभी अपने को बोला नहीं दिया था। परन्तु इतिहास के तकाजे के सामने रोने-धोने से क्या होता है ? प्रामाणिक अर्थशास्त्र के लिये यदि सर्वहारा अतिरिक्त मूल्य के उत्पावन का एक यंत्र मात्र है, तो पूंजीपति उसकी दृष्टि में केवल इस अतिरिक्त मूल्य को अतिरिक्त पूंजी में परिणत कर देने का यंत्र है। अर्थशास्त्र पूंजीपति के ऐतिहासिक कर्म को अत्यन्त गम्भीर दृष्टि से देखता है। उसके हदय में भोग की इच्छा और धन की तृष्णा के बीच जो भयानक संघर्ष चला करता है, उसे किसी तरह शान्त करने के लिये माल्यूस ने १८२० के लगभग एक ऐसे भम-विभाजन का प्रस्ताव किया था, जिसमें सचमुच उत्पादन में लगे हुए पूंजीपति को तो संचय करने का काम दिया गया था, और अतिरिक्त मूल्य में हिस्सा बंटाने वाले अन्य लोगों - जमींदारों, सरकारी अधिकारियों, पैसा पाने वाले पादरियों प्रादि-को खर्च करने का काम सौंपा गया था। माल्यूस ने लिखा है कि यह बात प्रत्यधिक महत्वपूर्ण है कि "खर्च करने की भावना और संचय करने
- Harant (“the passion for expenditure and the passion for accumulation")
को अलग-अलग रखा जाये। मगर पूंजीपति बहुत दिन से जीवन का मानन्द ले रहे थे और अनुभवी तथा व्यावहारिक भावमी थे। उन्होंने सुना तो लगे चीख-पुकार मचाने। उनके एक प्रवक्ता ने, बो रिकारों के शिष्य थे, कहा कि यह क्या हो रहा है? क्या मि• माल्यूस यह चाहते हैं कि लगान और किराये बढ़ा दिये जायें, ऊंचे कर लगाये जायें इत्यादि, ताकि अनुत्पादक उपभोगी सदा उचनी व्यक्तियों को अंकुश लगा-लगाकर उनसे काम कराते रहें? उत्पादन, निरन्तर बढ़ते हुए पैमाने का उत्पावन-यह सूत्र तो ठीक है, लेकिन इस प्रकार की क्रिया से उत्पादन में तेजी पाने के बजाय वह और बब जायेगा। और न ही यह बात उचित है (nor is it quite fair) कि अनेक ऐसे व्यक्तियों को केवल दूसरों को कोंचने के लिये निकम्मा बनाकर रखा जाये, जिनका स्वभाव ऐसा है (who are likely, from their characters) कि यदि उनसे जबर्दस्ती काम कराया जाये, तो वे सफलतापूर्वक काम कर सकते हैं। " प्रौद्योगिक पूंजीपति की रोटी का मक्खन हटाकर उसे कोंचना इस लेखक को अनुचित प्रतीत होता है, परन्तु फिर भी मजदूर को " 'सदा मेहनती बनाये रखने के लिये" उसकी मजदूरी को कम से कम कर देना वह बहुत पावश्यक समानता है। और वह इस बात को कभी नहीं छिपाता कि अतिरिक्त मूल्य का रहस्य प्रवेतन श्रम को हस्तगत करने में निहित है। "मजदूरों की प्रोर से बढ़ी हुई मांग का इससे अधिक और कुछ . . 1 " यहां तक कि जे० बी० से ने भी लिखा है : “Les épargnes des riches se font aux dépens des pauvres" ("धनी लोग गरीबों का गला काटकर पैसा बचाते हैं")। सिस्मोंदी के शब्द हैं : “रोमन सर्वहारा लगभग पूर्णतया समाज के खर्चे पर पलता था... माधुनिक समाज के बारे में हम एक तरह यह कह सकते हैं कि वह सर्वहारा के खर्चे पर पलता है; श्रम की उजरत में से जो कुछ काट लिया जाता है, समाज उसी के सहारे जिन्दा रहता है। (Sismondi, “Etudes, etc.", ग्रंथ १, पृ० २४१) Malthus, उप. पु., पृ० ३१९, ३२० । 8“ An Inquiry into those Principles Respecting the Nature of Demand, &c." ('मांग के स्वभाव तथा उपभोग की भावश्यकता के विषय में उन सिद्धान्तों की समीक्षा, इत्यादि'), पृ. ६७।