पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६६९

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पूंजीवादी उत्पादन बह पीरे-धीरे उसे उन लोगों पर हंसना सिला देती है, जो सन्यास के लिये बड़ा उत्साह दिखाते हैं। वह धीरे-धीरे सील जाता है कि सन्यासं पुराने रंग के कंजूसों का एक पूर्वग्रह मात्र है। पुराने डंग का पूंजीपति वहां व्यक्तिगत उपभोग को अपने स्वाभाविक कर्म का प्रतिक्रमण करने वाला पाप तथा संचय का "परिवर्जन" समझता था, वहाँ प्रानिक पर चलने वाला पूंजीपति संचय को सुन का "परिवर्जन" समझने की योग्यता रखता है। "Zwei Seelen wohnen, ach! in seiner Brust, die eine will sich von der andren trennen." ("अफसोस कि उसके हत्य में दो प्रात्मानों का निवास है और एक सदा दूसरे को त्यागने का प्रयत्न किया करती है।") जब इतिहास में पूंजीवावी उत्पावन का उदय होता है, और हर पूंजीवादी नये रस को व्यक्तिगत स्म में इस ऐतिहासिक अवस्था से गुजरना पड़ता है, -तब लालच और धनी बनने का मोह, इन दो भावनामों का बोर रहता है। परन्तु पूंजीवादी उत्पादन की प्रगति केवल भोग पौर विलास के संसार का ही सृजन नहीं करती, वह सट्टेबासी और ऋण-व्यवस्था के रूप में यकायक धनी बन बैठने के हजारों बोत खोल देती है। जब विकास एक खास अवस्था पर पहुंच जाता है, तो एक प्रचलित मात्रा की फजूलखर्ची "प्रभागे" पूंजीपति के लिये एक व्यावसायिक पावश्यकता बन जाती है। यह प्रतिव्ययिता साप ही धन-प्रदर्शन भी होती है, इसलिये उससे सास बनती है और उपार मिलने में प्रासानी होती है। अब विलास पूंजीपति के विसावा कायम रखने के खर्चे का एक अंग बन जाता है। इसके अतिरिक्त , पूंजीपति का धन कंजूस के बन की तरह उसके व्यक्तिगत श्रम और नियंत्रित उपभोग के अनुपात में नहीं बढ़ता, बल्कि वह इस अनुपात में बढ़ता है कि पूंजीपति दूसरों की मम शक्ति को कितना चूसता है और मजदूरों को किस हद तक बीवन सारे सुख मोर मानन का परिवर्जन कर देने के लिये मजबूर कर देता है। इसलिये, यद्यपि पूंजीपति की प्रतिव्ययिता में कमी मुक्त-हस्त सामन्त की प्रतिव्ययिता की सचाई नहीं होती, बल्कि, इसके विपरीत, उसके पीछे से सदा अत्यन्त घृणित पन-सृष्णा और एक- एक पाई का हिसाब रखने की भावना का करती है, तथापि संचय के साथ-साथ पूंजीपति का खर्च भी बढ़ता जाता है और यह बकरी नहीं रहता कि एक के कारण दूसरे पर कोई सीमा लग जाये। लेकिन इस विकास के साथ-साथ पूंजीपति के हत्य में संचय की भावना और भोग की भावना के बीच फ्रॉस्ट के मन के संघर्ष के समान संघर्ष छिड़ जाता है। . - की तरफ़ से पकड़कर खोह में बींचा गया है और यदि उनके खुरों के निशानों को कोई देखेगा, तो वह यही समझेगा कि कुछ बैल बोह के अन्दर से बाहर लाकर छोड़ दिये गये हैं। इस तरह सूदखोर दुनिया को धोखा देना चाहता है, ताकि लोग समझें कि उसने संसार का बड़ा उपकार किया है और ये सारे बैल उसी ने दिये हैं, जब कि सचाई यह है कि वह अकेला उन सबको चीर-फाड़कर या जाता है ... और जब हम रहजनों, हत्यारों और सेंधमारों को तरह-तरह की यातनाएं देते हैं और उनका सिर काट देते हैं, तब इन तमाम सूदखोरों को तो हमें और भी क्यावा यातनाएं देनी चाहिये, जान से मार डालना चाहिये... बोज-योजकर मारना चाहिये , शाप देना चाहिये और उनका सिर धड़ से अलग कर देना चाहिये " (Martin Luther, उप० पु०)। गेटे की रचना 'फ्रॉस्ट' देखिये। -