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पूंजीवादी उत्पादन

संचय का परिमाण इन भागों के अनुपात से निर्धारित होगा। परन्तु इन दो भागों का विभाजन तो केवल अतिरिक्त मूल्य का मालिक, केवल पूंजीपति, ही करता है। यह विभाजन वह अपनी इच्छानुसार करता है। मजदूर से वह जो बिराज वसूल करता है, उसके एक भाग का यह संचय करता है, और इस भाग के बारे में कहा जाता है कि पूंजीपति ने उसे बचा लिया है। कारण कि वह उसे ला नहीं जाता, अर्थात् वह पूंजीपति के कार्य को सम्पन्न करता है और अपना धन बढ़ाता है।

पूंजीपति का इसके सिवा कोई और ऐतिहासिक मूल्य नहीं है कि वह मूर्तिमान पूंजी होता है। और इसके सिवा उसका उस ऐतिहासिक अस्तित्व पर भी कोई अधिकार नहीं है, जिसपर, परिहासपूर्ण लिचनोक्स्की के शब्दों में, "कोई तारीख नहीं पड़ी है "। और केवल इसी हद तक उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली की क्षणिक प्रावश्यकता में खुद पूंजीपति के क्षणिक अस्तित्व की मावश्यकता भी निहित होती है। लेकिन जिस हद तक कि वह मूर्तिमान पूंजी है, उस हद तक उसे कार्य-क्षेत्र में उतरने की प्रेरणा उपयोग-मूल्यों और उनका भोग करने की इच्छा से नहीं, बल्कि विनिमय-मूल्य और उसमें वृद्धि करने की इच्छा से प्राप्त होती है। उसके सिर पर मूल्य से जुद अपना विस्तार कराने का भूत सवार रहता है, और वह निर्मम होकर मनुष्य-जाति को केवल उत्पादन के हेतु उत्पादन करने के लिये विवश करता है। इस प्रकार, वह बलपूर्वक समाज की उत्पादक शक्तियों का विकास कराता है और उन भौतिक परिस्थितियों को जन्म देता है, जो कि एकमात्र वास्तविक समाज के उच्चतर रूप के लिये प्राधार बनती हैं। यह वह समाज होगा, जिसका मूल सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति के पूर्ण एवं स्वतंत्र विकास का नियम होगा। पूंजीपति केवल मूर्तिमान पूंजी के रूप में ही पादर का पात्र होता है। इस रूप में कंजूस की तरह उसको भी सवा धन के रूप में धन का मोह रहता है। लेकिन कंजूस का मोह जहाँ मात्र उसकी मानसिक विलक्षणता होता है, वहां पूंजीपति का मोह सामाजिक यंत्र का एक प्रभाव होता है, जिसका पूंजीपति महन एक पहिया होता है। इसके अतिरिक्त, पूंजीवादी उत्पादन के विकास के लिये यह प्रावश्यक होता है कि किसी भी खास प्रौद्योगिक उद्यम में जो पूंजी लगी हुई है, उसमें लगातार वृद्धि होती जाये, और प्रतियोगिता के कारण पूंजीवावी उत्पादन के अन्तर्निहित नियमों का प्रत्येक अलग-अलग पूंजीपति बलपूर्वक अमल में पाने वाले बाए नियमों के रूप में अनुभव करता है। प्रतियोगिता पूंजीपति को अपनी पूंजी को सुरक्षित रखने के वास्ते उसका लगातार विस्तार करते रहने के लिये विवश कर देती है। लेकिन उत्तरोत्तर संचय के सिवा उसके सामने विस्तार करने का और कोई तरीका नहीं है।

इसलिये, जिस हब तक कि पूंजीपति का कार्य-कलाप केवल पूंजी का ही एक कर्म है, और पूंजी उसके व्यक्तित्व के द्वारा चेतना तथा इच्छाशक्ति प्राप्त कर लेती है, -उस हद तक उसका अपना निजी उपभोग भी संचय के क्षेत्र पर गका मारकर ही सम्भव हो सकता है। यह उसी तरह की बात है, जैसे दोहरे बतान वाले बही-खातों में पूंजीपति का निजी खर्च उसके हिसाब में नामे बाजू में गल बिया जाता है। संचय करना सामाजिक धन की दुनिया को जीतना है। पूंजीपति जिस मानव-समुदाय का शोषण करता है, संचय करना उसकी संख्या में वृद्धि करना है। और इस प्रकार संचय का प्रर्ष पूंजीपति के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों उंग के प्रभुत्व का विस्तार करना है।[]

  1. पूंजीपति के उस पुराने ढंग के, पर हर बार नये सिरे से सामने पाने वाले प्रतिरूप-सूदखोर-को अपने विवेचन का विषय बनाते हुए लूपर ने बहुत ही समुचित रूप में यह दिखाया