६४६ पूंजीवादी उत्पादन मालका .. है," वह कितना विस्तार प्राप्त कर चुका है, किस प्रकार १८६० में इंगलैण के कुल निर्यात- भाग इस धंधे का तैयार किया हुमा था और किस तरह कुछ वर्षों के बाद, जब मण्डी का विस्तार हो जायेगा और खास कर जब हिन्दुस्तानी मन्डी का विस्तार हो जायेगा और कपास ६ पेन्स फ्री पोज के भाव पर बहुतायत के साथ मिलने लगेगी, तब यह पंधा फिर से विस्तार प्राप्त कर लेगा। इसके बाद मि० पोटर ने लिला है : “किसी न किसी दिन...एक साल में, दो साल में या, हो सकता है, तीन साल में प्रावश्यक मात्रा फिर मिलने लगेगी... मैं जो सवाल करना चाहता हूं, वह यह है : क्या यह धंधा इस लायक है कि उसे जिन्दा रता जाये? क्या वह इस लायक है कि इन मशीनों को (यहां उसका मतलब श्रम करने वाली जीवित मशीनों से है) अच्छी हालत में रखा जाये, और उनसे हाथ धो बैठना क्या हब दर्जे की मूसंता नहीं होगी? मैं तो समझता हूं कि यह बड़ी भारी मूर्खता होगी। मैं यह मानता हूं कि मजदूर किसी को सम्पत्ति नहीं हैं ("I allow that the workers are not a property"), वे लंकाशायर की या मालिकों की सम्पत्ति नहीं हैं। लेकिन ये इन दोनों की शक्ति तो हैं; वे एक ऐसी मानसिक एवं प्रशिक्षित शक्ति है, जिसका स्थान एक पीढ़ी तक नहीं भरा जा सकता, हालांकि जिन मशीनों पर वे काम करते हैं ("the mere machinery which they work"), उनमें से बहुत सी ऐसी हैं, जिनको लाभपूर्वक बारह महीने के अन्दर ही हटाकर उनकी जगह नयी पौर पहले से बेहतर मशीनें लगायी जा सकती हैं। कार्य-शक्ति को विदेश चले जाने के लिये प्रोत्साहन बीजिये या इसकी अनुमति (I) दे दीजिये, -फिर पूंजीपति का क्या होगा? ("Encourage or allow the working-power to emigrate, and what of the capitalist?")... मजदूरों में जो सर्वोत्तम लोग हैं, उनको हटा दीजिये,-प्रचल पूंजी का भारी मात्रा में मूल्य- ह्रास हो जायेगा और चल पूंजी उस खराब किस्म के श्रम के साथ संघर्ष करने को राजी नहीं होगी, जो बहुत घोड़ी मात्रा में मिलेगा...हमसे कहा जाता है कि मजदूर इसे" (पराबासको) "चाहते हैं। उनके लिये ऐसी चाह करना तो बहुत स्वाभाविक है... सूती व्यवसाय की कार्य- , - पाठक यह नहीं भूले होंगे कि साधारण परिस्थितियों में, जब मजदूरी कम करने का सवाल सामने आता है, तब यही पूंजी सर्वथा दूसरा राग अलापने लगती है। तब मालिक लोग एक स्वर में यह कहते हैं कि "फैक्टरी के मजदूरों को यह तथ्य अच्छी तरह याद रखना चाहिये कि उनका श्रम वास्तव में एक हीन कोटि का निपुण श्रम है और दूसरा ऐसा कोई श्रम नहीं है, जिसे इतनी प्रासानी से सीखा जा सकता हो या जो इसी स्तर का श्रम हो और फिर भी जिसके लिये इससे अधिक पारिश्रमिक दिया जाता हो, या जिसे सबसे कम निपुणता रखने वाले किसी विशेषज्ञ से थोड़ी सी शिक्षा लेकर इससे जल्दी तथा इससे अधिक पूर्णता के साथ सीखा जा सकता हो . उत्पादन के व्यवसाय में मालिक की मशीनें वास्तव में मजदूर के श्रम तथा निपुणता की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है" (हालांकि अब हमें बताया जाता है कि इन मशीनों को १२ महीने के अन्दर ही हटाकर उनकी जगह पर नयी मशीनें लगायी जा सकती है ), "और यह निपुणता तो ६ महीने की शिक्षा से प्राप्त की जा सकती है, और कोई भी साधारण बेत-मजदूर उसे प्राप्त कर सकता है" (हालांकि अब हमें बताया जाता है कि यह निपुणता ३० वर्ष में भी नहीं प्राप्त की जा सकती)। ( देखिये इसी पुस्तक में पीछे, पृष्ठ ४७८।)
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६४९
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