साधारण पुनरुत्पादन ६४३ . पर नहीं, बल्कि अपने वास्तविक सामाजिक पैमाने पर पूरे चोर से चालू पूंजीवादी उत्पादन पर विचार करते हैं, तब मामले का एक बिल्कुल दूसरा पहलू सामने प्राता है। अपनी पूंजी के एक भाग को श्रम-शक्ति में बदलकर पूंजीपति अपनी पूरी पूंजी के मूल्य में वृद्धि कर देता है। वह एक पंच को काज करता है। उसे मजदूर से जो कुछ मिलता है, उससे तो वह मुनाफा कमाता ही है। वह खुब मजदूर को मो कुछ देता है, उससे भी मुनाफा कमाता है। श्रम-शक्ति के एवज में दी गयी पूंजी जीवन के लिये प्रावश्यक वस्तुओं में बदल दी जाती है, जिनके उपभोग से मौजून मजदूरों की मांस-पेशियों, स्नायुओं, हड़ियों और मस्तिष्क का पुनरुत्पावन होता है और नये मजदूर पैदा किये जाते हैं। इसलिये, जो नितान्त पावश्यक है, उसकी सीमानों के भीतर मजदूर वर्ग का व्यक्तिगत उपभोग भम-शक्ति के एवज में पूंजी द्वारा दिये गये जीवन-निर्वाह के साधनों को पुनः नयी मम-शक्ति में बदल देता है, ताकि पूंजी उसका शोषण कर सके । मजदूर-वर्ग का व्यक्तिगत उपभोग उत्पादन के उस साधन का उत्पादन तथा पुनरुत्पादन है, जिसके बिना पूंजीपति का काम नहीं चल सकता,-प्रति वह स्वयं मजदूर का उत्पादन तथा पुनरुत्पादन है। इसलिये, मजदूर का व्यक्तिगत उपभोग चाहे वर्कशाप के भीतर होता हो या उसके बाहर, चाहे उत्पादन की क्रिया का एक भाग हो या न हो, वह हर हालत में पूंजी के उत्पादन और पुनरुत्पादन का ही एक तत्व होता है। यह उसी तरह की बात है, जैसे मशीनों की सफाई चाहे मशीनों के चलते हुए की जाये और चाहे मशीनों के रुक जाने पर, वह पूंजी के उत्पादन और पुनवत्पादन का ही एक अंग होती है। इस बात से इसमें कोई फर्क नहीं पाता कि मजदूर अपने जीवन-निर्वाह के साधनों का पूंजीपति को जुन करने के लिये नहीं, बल्कि खुद अपने मतलब से उपभोग करता है। लहू, जानवर के सामने जो चारा गला जाता है, उसे खाने में परि जानवर को मला पाता है, तो इससे इस बात में कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका चारा साना उत्पादन की क्रिया का एक मावश्यक अंग है। मजबूर-वर्ग को बीवित रखना और उसका पुनरुत्पादन पूंजी के पुनरुत्पादन की एक प्रावश्यक शर्त है और हमेशा रहेगा। लेकिन पूंजीपति पूरे भरोसे के साथ इस काम को मजदूर की जीवित रहने और अपनी नस्ल को बढ़ाने की नैसर्गिक प्रवृत्तियों के सहारे छोड़ सकता है। उसको केवल इतनी ही फ्रिक रहती है कि मजदूर के व्यक्तिगत उपभोग को घटाकर वहां तक मुमकिन हो, केवल नितान्त पावश्यक उपभोग तक ही सीमित कर दिया जाये, और वह निश्चय ही दक्षिणी अमरीका के उन बेरहम जान-मा- लिकों की कमी नकल नहीं करता, जो अपने मजदूरों को कम पौष्टिक भोजन की अपेक्षा अधिक पौष्टिक भोजन खबर्दस्ती सिलाना स्यादा पसन्द करते हैं।' . 1"दक्षिणी अमरीका की खानों में काम करने वाले मजदूरों का दैनिक काम (जो शायद दुनिया में सबसे भारी काम है ) यह है कि १८० से २०० पौण्ड तक वजन की धातु को ४५० फुट की गहराई से अपने कंधों पर लादकर बान के अन्दर से जमीन की सतह तक लाते है। पर ये लोग केवल रोटी और सेम की फलियों पर जिन्दा रहते हैं। वे खुद तो महज़ रोटी ही बाना पसन्द करते, मगर उनके मालिकों को चूंकि यह पता है कि इनसान महल रोटी बाकर इतनी सक्त मेहनत नहीं कर सकते, इसलिये वे मजदूरों के साथ घोड़ों जैसा व्यवहार करते है और उनको जबर्दस्ती सेम की फलियां खिलाते हैं। बेशक फलियों में रोटी की अपेक्षा वह पूना (चूने का फासफ़ेट ) ज्यादा होता है, जिससे हड्डियां बनती है।" (Liebig, उप. पु., बण्ड १, पृ० १९४, नोट।) . . 410
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