६२६ पूंजीवादी उत्पादन अब हर प्रवद श्रम के ६ घण्टे के बजाय केवल 1 घण्टे का ही प्रतिनिधित्व करेगा। २४ २ पेन्स-३ शिलिंग, और इसी तरह ४८ बार पेनी 1-३ शिलिंग। दूसरे शब्दों में, एक ही समय में तैयार हो जाने वाले प्रबों की संख्या जिस अनुपात में बढ़ती जाती है और इसलिये एक प्रवद पर होने वाला भमकाल जिस अनुपात में घटता जाता है, उसी अनुपात में कार्यानुसार मजदूरी भी घटती जाती है। कार्यानुसार मजदूरी में इस तरह मो परिवर्तन होता है, वह यहां तक केवल नाम मात्र का परिवर्तन है। परन्तु उसके कारण पूंजीपति और मखदूर के बीच हमेशा संपाम चलता रहता है। यह संपाम या तो इसलिये चलता है कि पूंजीपति इसका बहाना बनाकर असल में मम का दाम कम कर देता है, और या इसलिये कि मन की उत्पादक शक्ति के बढ़ने के साथ-साथ उसकी तीव्रता भी बढ़ जाती है, या इसलिये कि मजदूर कार्यानुसार मजदूरी के विसावटी स्वरूप को हकीकत मान बैठता है, पानी बह यह समझने लगता है कि पूंजी- पति उसकी मम-शक्ति की नहीं, बल्कि उसकी पैदावार की कीमत देता है, और इसलिये जब उसकी मजबूरी तो कम कर दी जाती है, पर माल जिस दाम पर बिकता है, उसमें कोई कमी नहीं पाती, तब वह विद्रोह का मजा लेकर बड़ा हो जाता है। “मजदूर लोग...बहुत ध्यान- पूर्वक कच्चे माल के नाम पर और तैयार माल के नाम पर निगाह रखते हैं, और इस प्रकार ने अपने मालिक के मुनाफे का बिल्कुल ठीक-ठीक अनुमान लगा लेते हैं।" 1"उसकी कताई की मशीन की उत्पादक शक्ति बिल्कुल ठीक-ठीक माप ली जाती है, और इस उत्पादक शक्ति के बढ़ने के साथ-साथ काम की मजदूरी की दर घटती जाती है, हालांकि वह उसी अनुपात में नहीं घटती।" (Ure, उप. पु., पृ० ३१७।) इस मन्तिम सफाई के रूप में लिखे गये वाक्यांश को खुद उरे ने ही बाद को काट दिया था। वह यह मानते हैं कि म्यूल के लम्बा कर दिये जाने के फलस्वरूप श्रम में कुछ वृद्धि हो जाती है। इसलिये, उत्पादकता जिस अनुपात में बढ़ती है, उस अनुपात में श्रम में कमी नहीं माती। उरे ने आगे लिखा है : “इस वृद्धि से मशीन की उत्पादक शक्ति में पांचवें हिस्से का इज़ाफ़ा हो जायेगा। जब वह चीज होगी, तो कताई करने वाले मजदूर को उसके काम की मजदूरी उस दर पर नहीं मिलेगी, जिस दर पर पहले मिलती थी, लेकिन इस दर में चूंकि पांचवें हिस्से के अनुपात में कमी नहीं पायेगी, इसलिये यदि किन्हीं भी घण्टों के काम को लिया जायेगा, तो इस सुधार के फलस्वरूप मजदूर की कमाई कुछ बढ़ जायेगी।" लेकिन 'उपर्युक्त कथन में एक संशोधन करने की मावश्यकता है ... कताई करने वाला अल्प- वयस्क मजदूरों से जो मदद लेता है, उसके एवज में उसे अपनी ६ पेन्स की अतिरिक्त मामदनी में से कुछ अतिरिक्त रकम दे देनी होगी, और साथ ही वयस्क मजदूरों के एक हिस्से को काम से जवाब मिल जायेगा" (उप. पु., पृ. ३२१), जिससे जाहिर है कि मजदूरी में किसी तरह वृद्धि नहीं हो सकती।
- H. Fawcett, “The Economic Position of the British Labourer". (
फोसेट, 'ब्रिटिश मजदूर की पार्षिक स्थिति'), Cambridge and London, 1865, पृ०, et १७८।