६०४ पूंजीवादी उत्पादन के मूल्य को, या-यदि उसे मुद्रा के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है, तो उसके प्रावश्यक बाम को निर्धारित करता है। दूसरी ओर, यदि अम-शक्ति का नाम उसके मूल्य से भिन्न है, तो श्रम का नाम भी उसके तथाकषित मूल्य से उसी तरह भिन्न होता है। मम का नाम चूंकि केवल भम-शक्ति के नाम का ही एक प्रयुक्तियुक्त कम होता है, इसलिये चाहिर है कि इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि मम का मूल्य उसके द्वारा पैसा किये गये मूल्य से सबा कम होगा, क्योंकि पूर प्रम-शक्ति के मूल्य के पुनवत्पादन के लिये जितना काम करना मावश्यक होता है, पूंजीपति भम-शक्ति से सवा इससे ज्यादा काम लेता है। पर जो मिसाल दी गयी है, उसमें १२ घन्टे तक काम करने वाली भम-शक्ति का मूल्य ३ शिलिंग है। इतने मूल्य के पुनरुत्पादन के लिये ६ घण्टे पावश्यक होते हैं। पर, दूसरी मोर, मम-पाक्ति को मूल्य पैदा कर देती है, वह ६ शिलिंग के बराबर होता है, क्योंकि असल में तो बह १२ घण्टे काम करती है और यह कितना मूल्य पैरा करेगी, यह र उसके मूल्य पर नहीं, बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि वह कितनी देर तक काम करती रहती है। इस प्रकार हम एक ऐसे नतीजे पर पहुंच जाते हैं, वो पहली दृष्टि में बेतुका प्रतीत होता है, वह यह कि ६ शिलिंग का मूल्य पैदा करने वाले श्रम का मूल्य ३ शिलिंग होता है।' हम पागे यह भी देखते हैं कि ३ शिलिंग का यह मूल्य, जिसके द्वारा काम के दिन के केवल एक भाग की-प्रर्थात् ६ घण्टे के मम की-ही उजरत चुकायी जाती है, १२ घण्टे के पूरे दिन के मूल्य प्रणवा नाम के प में सामने प्राता है, और इन १२ घण्टों में इस तरह वे६ घन्टे भी शामिल होते हैं, जिनमें मजदूर ने बिना उजरत के काम किया है। इस प्रकार, मजदूरी- प इस बात के प्रत्येक चिन्ह को मिटा देता है कि काम के दिन के मावश्यक श्रम और अतिरिक्त श्रम में, मजदूरी पाने वाले और मजदूरी न पाने वाले श्रम में विभाजन हो जाता है। सारा श्रम मजदूरी पाने वाले भम के रूप में सामने पाता है। हरी-वेगार की प्रथा में, मजदूर खुद अपने लिये बो भम करता है और उसे अपने मालिक के लिये वो बेगार करनी पड़ती है, उन दोनों के बीच स्थान और समय का बहुत ही स्पष्ट अन्तर होता है। पुलामी की प्रथा में काम के दिन के जिस हिस्से में गुलाम केवल अपने जीवन-निर्वाह के साधनों के मूल्य के बराबर मूल्य पैदा करता है और इसलिये जिस हिस्से में वह महब अपने लिये काम करता है, उस हिस्से का भम भी मालिक के लिये किया गया मम ही प्रतीत होता है। गुलाम का सारा मम मजदूरी न पाने वाला प्रतीत होता है। इसके विपरीत, मजदूरी-श्रम में अतिरिक्त भम, या मजबूरी नपाने - 'देखिये "Zur Kritik der Politischen Oekonomie" ('मर्यशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास'), पृ. ४०, जहां मैंने यह कहा है कि उस पुस्तक के पूंजी से सम्बंध रखने वाले भाग में इस समस्या को हल किया जायेगा कि "केवल अम-काल के द्वारा निर्धारित होने वाले विनिमय-मूल्य के प्राधार पर उत्पादन हमें इस नतीजे पर कैसे पहुंचा देता है कि श्रम का विनिमय-मूल्य श्रम की पैदावार के विनिमय-मूल्य से कम होता है?" 'स्वतंत्र व्यापार के समर्थकों के मन्दन के "Morning Star" नामक पत्र की सरलता मूर्खता की सीमा तक पहुंच जाती है। प्रादमी जितना नैतिक क्रोध बटोर सकता है, वह सारा बटोरकर उसने अमरीकी गृह-युद्ध के दिनों में बार-बार यह कहा कि "Confederate States" (दक्षिण राज्यों) में हग्गियों को एकदम मुफ्त में काम करना पड़ता है। उसे देखना यह चाहिये था कि अमरीका के इन राज्यों में एक हसी मजदूर पर रोजाना कितना बर्ष किया जाता है और उसके मुकाबले में मन्वन के ईस्ट एण्ड में रहने वाले एक स्वतंत्र मजदूर का दैनिक वर्षा कितना बैठता है।
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