पूंजीवादी उत्पादन (२) श्रम की तीव्रता और उत्पादकता बढ़ती जाती है और साथ ही काम का दिन छोटा होता जाता है . - बढ़ी हुई उत्पादकता और मम की पहले से अधिक तीव्रता दोनों का एक सा असर होता है। उन दोनों से एक निश्चित समय में पैदा होने वाली वस्तुओं की राशि में वृद्धि हो जाती है। इसलिये, बोनों ही काम के दिन के उस भाग को छोटा कर देती हैं, जिसकी मजदूर को अपने जीवन निर्वाह के साधन, या उनका सम-मूल्य, पैदा करने के लिये भावश्यकता होती है। काम के दिन के इस पावश्यक, किन्तु संकोचनशील भाग से काम के दिन को अल्पतम लम्बाई निर्धारित होती है। यदि काम का पूरा दिन सिकुड़कर बस इस भाग की लम्बाई जितना ही रह जाये, तो अतिरिक्त श्रम गायब हो जायेगा,- ऐसा समापन पूंजी के राज्य में बिलकुल प्रसम्भव है। केवल उत्पादन के पूंजीवाद रूप को नष्ट करके ही काम के दिन की लम्बाई को घटाकर पावश्यक मम-काल के बराबर लाया जा सकता है। लेकिन ऐसा होने पर भी, मावश्यक मम-काल अपनी सीमाओं से मागे बढ़ जायेगा। वह इसलिये कि एक पोर तो "बीवन-निर्वाह के साधनों" की अवधारणा में बहुत सी नयी वस्तुएं शामिल हो जायेंगी और मजदूर पहले से बिल्कुल भिन्न बीवन-स्तर की मांग करने लगेगा। दूसरी ओर, इसलिये कि मानकल को कुछ अतिरिक्त भन है, उसका एक हिस्सा पावश्यक मम में गिना जाने लगेगा। यहाँ मेरा मतलब उस मम से है, जो प्रारमित एवं संचित निधि का संग्रह करने के लिये किया जाता है। श्रम की उत्पादकता जितनी बढ़ जाती है, काम का दिन उतना ही छोटा हो जाता है, और काम का दिन जितना छोटा हो जाता है, मम की तीव्रता उतनी ही अधिक बढ़ सकती है। सामाजिक दृष्टिकोण से, उत्पादकता उसी अनुपात में बढ़ती है, जिस अनुपात में मम के वर्ष में मितव्ययिता बरती जाती है। मन के खर्च में मितव्ययिता बरतने का पर्व केवल इतना ही नहीं है कि उत्पादन के साधनों का उपयोग करने में मितव्ययिता बरती जाये, बल्कि यह भी कि हर प्रकार के अनुपयोगी श्रम से बचा जाये। जहां, एक तरफ़, उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली हर अलग-अलग व्यवसाय में मितव्ययिता बरतना समरी बना देती है, वहाँ, दूसरी तरफ़, उसकी प्रतियोगिता की अराजकतापूर्ण व्यवस्था के फलस्वरूप श्रम-शक्ति का तथा उत्पादन के साधनों का हब से ज्यादा अपव्यय होता है और, इसके अलावा, पूंजीवादी उत्पादन बहुत से ऐसे पंचे पैदा कर देता है, जो इस समय भले ही नितान्त पावश्यक प्रतीत होते हों, पर जुब अपने में अनावश्यक होते हैं। यदि मम की तीव्रता और उत्पादकता पहले से निश्चित हों, तो समाज के सभी समर्ष सबस्यों के बीच जैसे-जैसे काम का विभाजन अधिकाधिक समतुलित रूप में किया जाता है और जैसे-जैसे किसी खास वर्ग से श्रम का प्राकृतिक बोझा अपने कंधों से हटाकर समाज के किसी अन्य स्तर के कंधों पर गल देने की क्षमता छीन ली जाती है, वैसे-वैसे समाज को भौतिक उत्पादन में अधिकाधिक कम समय लगाना पड़ता है और उसके फलस्वरूप व्यक्ति के स्वतंत्र, बौद्धिक एवं सामाजिक विकास के लिये उतना ही अधिक समय मिलने लगता है। इस दिशा में काम के दिन को अधिकाधिक छोटा करते जाने की क्रिया पर पाखिर एक सीमा का प्रतिबंध मग ही जाता है। वह है मन के सामान्यकरण की सीमा । पूंजीवादी समाज में जनता के सम्पूर्ण बीवन को श्रम-काल में बदलकर एक वर्ग के लिये अवकाश प्राप्त किया जाता है। , .
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