पूंजीवादी उत्पादन . 1 उसी तरह वहां के लोग जंगलों से अपने लिये रोटी काट लाते हैं। अब मान लीजिये कि पूर्वी द्वीप-समूह के रोटी काटकर लाने वाले इस मनुष्य को अपनी समस्त प्रावश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्रति सप्ताह १२ बड़े काम करना पड़ता है। उसके लिये प्रकृति की प्रत्यक्ष देन अवकाश का बाहुल्य है। पर इस प्रकार का खुद अपने वास्ते भी वह केवल उसी वक्त उत्पादक ढंग से उपयोग कर सकता है, अब ऐतिहासिक घटनामों का एक पूरा कम पहले ही गुखर गया हो, और किन्हीं दूसरे पारमियों के लिये वह यह अवकाश तभी सर्च करेगा, जब उसके साथ संबईस्ती की जायेगी। यदि पूंजीवादी उत्पादन चालू कर दिया जाये, तो इस भले मादमी को एक दिन के काम की पैदावार अपने वास्ते पाने के लिये हफ्ते में शायद ६ दिन काम करना पड़ेगा। प्रकृति की. उदारता इसका कोई कारण नहीं बता सकती कि. तब इस भावमी को हफ्ते में ६ दिन क्यों काम करना पड़ेगा या ५ दिन का अतिरिक्त मम क्यों किसी दूसरे को सौंप देना पड़ेगा। प्रकृति की उदारता तो केवल इतना ही स्पष्ट करती है कि क्यों उसका मावश्यक मम-काल सप्ताह में केवल एक दिन तक ही सीमित रहता है। परन्तु किसी भी स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता कि उसकी अतिरिक्त पैदावार मानव श्रम में निहित किसी गुप्त गुण से उत्पन्न हुई है। सो, इस तरह न केवल ऐतिहासिक ढंग से विकसित मन की सामाजिक उत्पादकता, बल्कि उसकी स्वाभाविक उत्पादकता भी उस पूंजी की उत्पादकता प्रतीत होती है, जिसमें उस मन का समावेश हो गया है। रिकारों को इसकी चिन्ता कमी नहीं हुई कि अतिरिक्त मूल्य का उडव-सोत क्या है। वह तो उसे एक ऐसी बीच समानते हैं, जो उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली में निहित है, मौर: उनकी दृष्टि में पूंजीवादी प्रणाली सामाजिक उत्तावन की स्वाभाविक प्रणाली है। वह बब कमी श्रम की उत्पादकता की चर्चा करते है, तो उसमें अतिरिक्त मूल्य के कारण की नहीं, बल्कि उसमें अतिरिक्त मूल्य का परिमाण निर्धारित करने वाले कारण की खोज करते हैं। दूसरी पोर; रिकारों के अनुयायियों ने मुले-माप यह घोषणा कर दी है कि मुनाने का (यहाँ पढ़ियेः पतिरिक्त मूल्य का) मूल कारण श्रम की उत्पादकता है। यह उन व्यापारवादियों के मुकाबले में तो हर हालत में एक प्रगतिशील विचार है, वो यह समझते थे कि. पैदावार की लागत पौर पैदावार के नाम का अन्तर विनिमय-कार्य के दौरान में पैदा हो जाता है और उसका. कारण मह है कि पैदावार की विकी के समय परीवार से उसके मूल्य से अधिक बसून कर लिया जाता है। और रिकारों के अनुयायी भी समस्या से कन्नी काट गये थे, उन्होंने उसे हल नहीं किया था। सच पूछिये, तो ये पूंजीवाची पर्वशास्त्री सहन ही यह समझ गये -और उनका यह समझना सही भी पा-कि अतिरिक्त मूल्य की उत्पत्ति के विकट प्रश्न को स्थाना पुरेदना बहुत खतरनाक है। लेकिन हम जान स्टुअर्ट मिल के बारे में क्या कहें, जो अपने काम के साधार पर दावा तो करतें हैं व्यापारवादियों से बहुत भेष्ठ होने का, पर से रिकारों की मृत्यु के प्राणी शताबी बार भहे रंग से केवल उन लोगों की गोलमोल बातों को हराया करते हैं, जिन्होंने सबसे पहले रिकार्ग के सिद्धान्तों को प्रति-सरल रूम में पेश करने की कोशिश में उनको विकृत करके पेश किया था? . . .: F. Schouw, * Die Erde, die Pflanzen und der Mensch". HET SVÍ., Leipzig, 1854, 9° 9851
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