५७० पूंजीवादी उत्पादन . भम का प्रचार मजदूर को गुलाम बनाने, उसका शोषण करने और उसको गरीब बनाने का साधन बन जाता है, और श्रम-अभियानों का सामाजिक संयोजन और संगठन मजबूर की व्यक्तिगत जीवन-शक्ति, स्वतंत्रता और स्वाधीनता को कुचलकर बतम कर देने की संगठित पति का रूप ले लेते हैं। बेहाती मजदूर पहले से बड़े रकबे में बिखर जाते हैं, जिससे उनकी प्रतिरोष की शक्ति टूट जाती है, जब कि उपर शहरी मजदूरों की शक्ति केन्द्रीकरण के कारण बढ़ जाती है। शहरी उद्योगों की भांति प्राधुनिक खेती में भी काम में लगाये हुए श्रम की उत्पादकता और मात्रा में वृद्धि तो होती है, पर इस क्रीमत पर कि भम-शक्ति खुब तबाह और बीमारियों से नष्ट हो जाती है। इसके अतिरिक्त, पूंजीवादी खेती में जो भी प्रगति होती है, वह न केवल मजदूर को, बल्कि धरती को लूटने की कला की भी प्रगति होती है। एक निश्चित समय के वास्ते धरती की उर्वरता बढ़ाने के लिये उठाया जाने वाला हर कदम साप ही इस उर्वरता के स्थायी स्त्रोतों को नष्ट कर देने का कदम होता है। मिसाल के लिये, संयुक्त राज्य अमरीका की तरह जितना अधिक कोई बेश पाधुनिक उद्योग की नींव पर अपने विकास का श्रीगणेश करता है, वहां विनाश की यह प्रक्रिया उतनी ही अधिक तेज होती है।' 1 1 देखिये Liebig की रचना "Die Chemie in ihrer Anwendung auf Agrikultur und Physiologie" ( सातवां संस्करण, १८६२), और विशेषकर उसके पहले खण्ड में "Einleitung in die Naturgesetze des Feldbaus" ('खेती के प्राकृतिक नियमों का परिचय')। लीबिग की एक अमर देन यह है कि उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान के दृष्टिकोण से आधुनिक खेती के नकारात्मक अथवा विनाशकारी पहलू का विवेचन किया है। उन्होंने खेती के इतिहास का जो सारांश प्रस्तुत किया है, उसमें भी, कुछ भोंड़ी गलतियों के बावजूद, प्रकाश की चमक दिखाई देती है। किन्तु यह दुःख की बात है कि उन्होंने नीचे दिये गये कुछ उद्धरणों के समान अटकलपच्चू बातें कहने का भी दुस्साहस किया है। "मिट्टी को ज्यादा भुरभुरी बना देने और अक्सर हल चलाने से सरंध्र मिट्टी के भीतर वायु के परिचलन में सहायता मिलती है, और धरती का जो हिस्सा वायुमण्डल के प्रभाव के लिये खुला रहता है, उसका रकबा बढ़ जाता है और उसे नव-जीवन प्राप्त हो जाता है। लेकिन यह देखना कठिन नहीं है कि भूमि की उपज भूमि पर खर्च किये गये श्रम के अनुपात में नहीं बढ़ सकती, बल्कि उसके अनुपात में वह बहुत कम बढ़ती है। इस नियम का"-मागे लीबिग कहते हैं - "सबसे पहले जान स्टुअर्ट मिल ने अपनी रचना "Principles of Pol. Econ." ('अर्थशास्त्र के सिद्धान्त') (खण्ड १, पृ० १७) में इस प्रकार प्रतिपादन किया था: 'यह खेती के उद्योग का सार्वत्रिक नियम है कि caeteris paribus (अन्य बातों के समान रहते हुए) भूमि की उपज मजदूरों की संख्या की वृद्धि के ह्रासमान अनुपात में बढ़ती है' (मिल ने यहां पर रिकार्डो के अनुयायियों द्वारा प्रतिपादित नियम का ग़लत रूप में प्रयोग किया है; कारण कि 'the decrease of the labourers employed' ["काम करने वाले मजदूरों की संख्या में होने वाली कमी"] चूंकि इंगलैण्ड में खेती की प्रगति के साथ कदम से कदम मिलाकर हुई थी, इसलिये यह नियम , जिसका इंगलैण्ड में पाविष्कार हुमा और जिसे इंगलैण्ड पर ही लागू करने की कोशिश की गयी, उस देश पर हरगिज लागू नहीं होता था)। यह बात बहुत उल्लेखनीय है क्योंकि मिल को इस नियम के कारणों का ज्ञान नहीं था" (Liebig, उप. पु., बण्ड १, पृ० १४३ और नोट)। लीबिग ने "श्रम" शब्द का गलत अर्थ लगाया है। अर्थशास्त्र में इस शब्द
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