५२ पूंजीवादी उत्पादन . . . न तो पहली बीच हो सकती है और न दूसरी। इसलिए दोनों ही चीजों को, जहां तक वे विनिमय-मूल्य है, इस तीसरी चीन में बदल देना सम्भव होना चाहिए। रेखा-गणित का एक सरल उदाहरण इस बात को स्पष्ट कर देगा। ऋजुरेलीय प्राकृतियों के क्षेत्रफलों का हिसाब लगाने और उनकी पापस में तुलना करने के लिए हम उनको त्रिकोणों में बदल गलते हैं। लेकिन खुद त्रिकोण का क्षेत्रफल एक ऐसी बीज के द्वारा व्यक्त किया जाता है, जो उसकी दृश्य प्राकृति से बिल्कुल अलग होती है, -अर्थात् उसका क्षेत्रफल प्राधार तथा ऊंचाई के गुणनफल के प्राये के बराबर होता है। इसी तरह मालों के विनिमय-मूल्यों को भी किसी ऐसी चीज के द्वारा व्यक्त करना सम्भव होना चाहिए, जो उन सब में मौजूद हो और जिसकी कम या ज्यादा किसी न किसी मात्रा का ये सारे माल प्रतिनिधित्व करते हों। यह "चीन", जो सबमें मौजूद है, मालों का रेला-गणित सम्बंधी, रासायनिक अथवा कोई अन्य प्राकृतिक गुण नहीं हो सकता। ऐसे गुणों को भोर तो हम केवल उसी हब तक ध्यान देते हैं, जिस हद तक कि उनका इन मालों की उपयोगिता पर प्रभाव पड़ता है, या जिस हद तक कि ये गुण उनको उपयोग-मूल्य बनाते हैं। लेकिन मालों का विनिमय, बाहिर है, एक ऐसा कार्य है, जिसकी मुख्य विशेषता यह होती है कि उसमें उपयोग मूल्य को बिल्कुल अलग कर दिया जाता है। तब एक उपयोग-मूल्य उतना ही अच्छा होता है, जितना कोई दूसरा उपयोग-मूल्य , बवार्ते कि वह पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो। या, जैसा कि बूढ़े बार्बोन ने बहुत दिन पहले कहा था, "यदि उनके मूल्य बराबर हों, तो एक तरह की जिन्स उतनी ही अच्छी है, जितनी दूसरी तरह की जिन्स। समान मूल्य की चीजों में कोई अन्तर या भेद नहीं होता... सो पार की कीमत का सीसा या लोहा उतना ही मूल्य रखता है, जितना सौ पौर की कीमत की चांदी या सोना।" उपयोग-मूल्यों के रूप में मालों के बारे में सबसे बड़ी बात यह होती है कि उनमें अलग-अलग प्रकार के गुण होते हैं, लेकिन विनिमय-मूल्यों के रूप में वे महब अलग-अलग प्रकार की मात्राएं होती है और इसलिए उपयोग मूल्य का उनमें एक कण भी नहीं होता। प्रतएव, यदि हम मालों के उपयोग-मूल्य की मोर ध्यान न दें, तो उनमें केवल एक ही समान तत्त्व बचता है, और वह यह है कि वे सब मम की पैदावार होते हैं। लेकिन हमारे हाथों में जब श्रम की पैराबार में भी एक परिवर्तन हो गया है। यदि हम उसे उसके उपयोग- मूल्य से अलग कर लेते हैं, तो उसके साथ-साथ हम उसे उन भौतिक तत्त्वों और प्राकृतियों से भी अलग कर गलते हैं, जिन्होंने इस पैदावार को उपयोग-मूल्य बनाया है। तब हम उसमें मेख, घर, सूत या कोई भी अन्य उपयोगी वस्तु नहीं देखते। तब एक भौतिक वस्तु के रूप में उसका अस्तित्व प्रांतों से मोमल हो जाता है। और न ही तब उसे बढ़ई, राज और कातने वाले के श्रम की पैदावार के रूप में या निश्चित ढंग के किसी भी अन्य उत्पादक श्रम की पैदावार के रूप में माना जा सकता है। तब जुद पैदावार के उपयोगी गुणों के साथ-साप हम उसमें निहित श्रम के विभिन्न प्रकारों के उपयोगी स्वरूप को तथा उस श्रम के मूर्त रूपों को भी अपनी प्रांतों से दूर कर देते हैं। तब उस एक चीन को छोड़कर, जो उन सब में समान रूप से मौजूद होती है, और कुछ नहीं बचता, और सभी प्रकार के भम एक ही रंग के श्रम में बदल जाते हैं, और वह होता है प्रमूर्त मानव-श्रम । . 1N. Barbon, उप० पु०, पृ. ५३ और ७।
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