पूंजीवादी उत्पादन व्यवसायों में तमाम रूप प्रापस में मिले हुए हैं। यहां यह व्यवस्था पायी जाती है, जिसे सचमुच फेक्टरी-व्यवस्था कहा जा सकता है। इस व्यवस्था में बीच के लोगों को पूंजीपति en chel (मुल्य पूंजीपति ) से कच्चा माल मिलता है, और वे १० से ५० तक या उससे भी ज्यादा मजदूरों को "कमरा " या "बरसातियों में अपनी मशीनों पर काम करने के लिये इकट्ठा कर लेते हैं। अन्त में, कुछ ऐसे स्थान भी है, वहां पर वही हालत है, जो सभी स्थानों में पैदा हो जाती है, जहां मशीनें किसी संहति में संगठित नहीं होती और वहां बहुत ही छोटे पैमाने पर भी उनको इस्तेमाल किया जा सकता है। यहां बस्तकार और घरेलू मजदूर अपने परिवार के लोगों के साथ या बाहर के थोड़े से मन की मदद से खुद अपनी सिलाई की मशीनों को इस्तेमाल करते हैं। इंगलैड में जो व्यवस्था सचमुच पायी जाती है, वह यह है कि पूंजीपति अपने मकान पर मशीनों की एक बड़ी संख्या जमा कर लेता है और फिर इन मशीनों की पैदावार को घरेलू मजदूरों के बीच बांट देता है, ताकि वे उसपर मागे काम कर सकें। किन्तु संक्रान्तिकालीन रूपों की विविधता से वास्तविक फैक्टरी-व्यवस्था में स्पान्तरित हो जाने की प्रवृति पर पर्वा नहीं पढ़ पाता। स्वयं सिलाई की मशीन का स्वरूप ही इस प्रवृति का पोषण करता है। इस मशीन के नाना प्रकार के उपयोग होते हैं। इससे एक ही पंधे की जो बहुत सी शालाएं पहले एक दूसरे अलग-अलग थी, उनको एक छत के नीचे और एक प्रबंध के मातहत केनीभूत करने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है। इसमें इस बात से भी मदद मिलती है कि शुरू की तैयारी का सुई का काम और अन्य कुछ क्रियाएं सबसे अधिक सुविधा के साथ उसी मकान में सम्पन्न हो सकती हैं, जिसमें मशीन लगी है। साथ ही हाप से सीने वालों का और खुब अपनी मशीनों पर काम करने वाले घरेलू मजदूरों का लाजिमी तौर पर विवाला निकल जाने से भी इस बात में मदद मिलती है। कुछ हद तक उनका यह हाल हो भी पुका है। सिलाई की मशीनों में लगी हुई पूंजी की मात्रा बराबर बढ़ती जाती है। इससे मशीन से तैयार होने वाली वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ावा मिलता है, और मणियां उनसे अंट जाती है। तब घरेलू मजदूरों को मालूम हो जाता है कि अब उनके लिये अपनी मशीनें बेच देने का समय मा गया है। बुर सिलाई की मशीनों का प्रति-उत्पादन होने लगता है, जिसकी वजह से उत्पादकों को अपनी मशीनें बेचने की इतनी ज्यादा क्रिक हो जाती है कि वे उनको हप्तेवार किराये पर उठाने लगते हैं। इस तरह बो लोकनाक प्रतियोगिता शुरू होती है, उसमें मशीनों के छोटे-छोटे मालिक एकवन पिस जाते हैं। मशीनों की बनावट में भी बराबर परिवर्तन होते रहते हैं, और ये अधिकाधिक सस्ती होती जाती है। इससे पुराने ढंग की मशीनों का दिन-ब-दिन मूल्य-हास होता जाता है, और वे बहुत ही कम दामों पर बड़ी भारी संख्या में बड़े पूंजीपतियों के हाथों बिकने लगती है, क्योंकि अब महब वे ही उनको इस्तेमाल करके मुनाफा कमा सकते हैं। पन्त . 'दस्ताने बनाने के व्यवसाय में और अन्य ऐसे उद्योगों में , जिनके मजदूरों की हालत इतनी ज्यादा खराब होती है कि उनमें और कंगालों में कोई भेद नहीं किया जा सकता, यह बात नहीं होती। .उप. पु., पृ० ८३, अंक १२२ । प्रकेले लीसेस्टर के बूटों और जूतों के थोक व्यवसाय में ही १८६४ में सिलाई की ८०० मशीनें इस्तेमाल हो रही थीं। 'उप० पु०, पृ. २४, अंक १२४ ।
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