पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/५१६

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मशीनें और माधुनिक उद्योग ५१३ . इसलिये, फेक्टरी-मखदूरों की संख्या में वृद्धि होने की एक प्रावश्यक शर्त यह है कि मिलों में लगी हुई पूंजी की मात्रा में उससे कहीं अधिक तेजी के साथ वृद्धि हो। किन्तु पूंजी की वृद्धि प्रौद्योगिक धक के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करती है। इसके अलावा, समय-समय पर यह वृद्धि प्राविधिक प्रगति के कारण रुक जाती है, क्योंकि यदि एक समय प्राविधिक प्रगति एक तरह से नये मजदूरों का काम करती है, तो दूसरे समय वह पुराने मजदूरों को सचमुच विस्थापित कर देती है। यांत्रिक उद्योग में इस प्रकार जो गुणात्मक परिवर्तन होते हैं, उनके कारण लगातार फैक्टरी के मजदूरों को जवाब मिलता रहता है या नये मजदूरों के लिये फैक्टरी के बरवाजे बन्द हो जाते हैं। इसके विपरीत, जब फैक्टरियों का केवल परिमाणात्मक विस्तार होता है, तब न केवल उन मजदूरों को फिर से काम मिल जाता है, जिनको पहले जवाब मिल गया बल्कि मजदूरों के नये जत्वे भी रोजी पा जाते हैं। इस प्रकार, मजदूरों के माकर्षण और प्रतिकर्षण, बोनों प्रकार की किया लगातार चलती रहती है। उन्हें कभी इसका सहारा लेना पड़ता है, तो कभी उसका । और इसके साथ-साथ प्रौद्योगिक सेना के सिपाहियों के लिंग, प्रायु तथा निपुणता में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं। प्रारम्भ हुआ, तो लीसेस्टर के जूतों के धंधे में क्रान्ति हो गयी। उन दिनों अच्छी मजदूरी कमायी जा सकती थी। अलग-अलग फ़र्मों के बीच सबसे अधिक साफ़-सुथरा माल तैयार करने की बड़ी होड़ चलती थी। किन्तु उसके कुछ समय बाद ही एक ज्यादा खराब किस्म की होड़ होने लगी। इस बात की होड़ होने लगी कि देखें, कौन किससे कम भाव पर बाजार में अपना माल बेच सकता है। इसके ख़तरनाक नतीजे जल्द ही इस शकल में सामने आये कि मजदूरी में कटौतियां होने लगीं। श्रम के दामों में इतनी तेजी से गिराव पाया कि आजकल बहुत सी फ़र्म पुराने दिनों की केवल प्राधी मजदूरी देती है। और फिर भी, यद्यपि मजदूरी बराबर नीचे गिरती जा रही है, तथापि मुनाफ़े मजदूरी की दर में होने वाले हर परिवर्तन के साथ बढ़ते हुए लगते हैं। - जब व्यवसाय के लिये मंदी का वक्त पाता है, तब उससे भी कारखानेदार फ़ायदा उठाते हैं। वे मजदूरी को हद से ज्यादा कम करके , यानी मजदूर के जीवन- निर्वाह के साधनों को प्रत्यक्ष रूप से लूटकर, असाधारण मुनाफ़े कमाने की कोशिश करते हैं। एक उदाहरण देखिये (इसका कोवेष्ट्री के रेशम की बुनाई के उद्योग के संकट से सम्बंध है ): "मुझे मजदूरों के साथ-साथ कारखानेदारों से भी जो सूचना मिली है, उससे इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि विदेशी उत्पादकों की प्रतियोगिता या अन्य कारणों से मजदूरी में जितनी कटौती करना मावश्यक था, उससे कहीं अधिक कटौती कर दी गयी है... अधिकतर बुनकर पहले से ३० से ४० प्रतिशत तक कम मजदूरी पर काम कर रहे हैं। पांच साल पहले फीते के जिस टुकड़े को बनाने के लिये बुनकर को ६ शिलिंग या ७ शिलिंग मिल जाते थे, अब उसके लिये केवल ३ शिलिंग ३ पेंस या ३ शिलिंग ६ पेंस मिलते हैं। अन्य प्रकार के काम की मजदूरी पाजकल २ शिलिंग या २ शिलिंग ३ पेंस है ; पहले वह ४ शिलिंग और ४ शिलिंग ३ पेंस थी। मांग को बढ़ाने के लिये मजदूरी में जितनी कटौती करना आवश्यक था, मालूम होता है, उससे अधिक कटौती कर दी गयी है। वास्तव में अनेक प्रकार के फ्रीतों की बुनाई के वर्ष में जो कमी मा गयी है, निश्चय ही उसके साथ-साप तैयार माल के बाजार-भाव में उसके अनुरूप कमी नहीं की गयी है।" (मि० एम० लोंगे की रिपोर्ट ; "Ch. Emp. Com., V Rep., 1866 ['बाल-सेवायोजन पायोग की पांचवीं रिपोर्ट, १८६६'], पृ० ११४, अंक १।) M - , . 33-45