मशीनें और माधुनिक उद्योग ४६५ पेन्स बैठी २ दिया। मि० रोबर्ट गार्डनर ने २० अप्रैल १०४ को प्रेस्टन में स्थित अपनी दो बड़ी फ्रक्टरियों में श्रम के घण्टे बारह से घटाकर ग्यारह घण्टे रोजाना कर दिये थे। साल भर तक इस तरह काम करने का नतीजा यह निकला कि "पहले जितनी ही पैदावार हुई और उसमें पहले जितनी ही लागत लगी, और मजदूर पहले बारह घन्टे में जितनी मजदूरी कमाते थे, वही मजबूरी उन्होंने ग्यारह घन्टे में कमा ली।"1 कताई और धुनाई के विभागों में जो प्रयोग किये गये, उनकी में यहाँ पर्चा नहीं करूंगा, क्योंकि उनके साथ-साथ मशीनों की चाल भी २ प्रतिशत बढ़ा दी गयी थी। परन्तु बुनाई-विभाग में, जहाँ पर हम यह भी बता दें कि बहुत कामगार और बढ़िया सामान तैयार होता है, काम की परिस्थितियों में बरा सा भी परिवर्तन नहीं हुमा था। वहां पर इस प्रयोग का यह नतीजा निकला : ६ जनवरी से २० अप्रैल १८ तक बारह घण्टे के दिन के अनुसार काम हुमा और हर मजदूर की प्रोसत साप्ताहिक मजबूरी १० शिलिंग १ २ २० अप्रैल से २९ जून १४ तक ग्यारह घण्टे के दिन के अनुसार काम किया गया और तब १ प्रोसत साप्ताहिक मजदूरी १० शिलिंग३ पेन्स बैठी। 'यहां पर पहले बारह घण्टे में जितनी पैदावार होती थी, ग्यारह घण्टे में उससे ज्यादा पैदावार हुई, और वह पूर्णतया इस कारण हुई कि मजदूरों ने प्रषिक लगन के साथ काम किया और समय का मितव्ययिता के साथ उपयोग किया। उनको यदि पहले जितनी मजदूरी और एक घण्टे का प्रषिक अवकाश मिला, तो पूंजीपति के लिये पहले जितनी ही पैदावार तैयार हो गयी और साथ ही एक घन्टे में जितना कोयला, गैस तथा अन्य वस्तुएं खर्च होती थी, उनकी बचत हो गयी। मेसर्स होराक्स एक जेक्सन की मिलों में भी इसी प्रकार के प्रयोग किये गये और उनमें भी समान रूप से सफलता मिली। बम के घण्टों को कम कर देने से सबसे पहले तो भन के संघटन के लिये पावश्यक मनोगत परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती है, कि उसके बाद मजदूर एक श्चित समय में पहले से अधिक शक्ति खर्च कर सकता है। जैसे ही मन के घण्टे अनिवार्य रूप से कम कर दिये जाते है, वैसे ही मशीनें पूंजी के हाथों में एक निश्चित समय में नियमित रूप से पहले से अधिक मन कराने का बस्तुगत साधन बन जाती हैं। यह दो तरह से किया जाता है : मशीनों की रफ्तार बढ़ाकर और एक मजदूर को पहले से अधिक संख्या में मशीनों पर लगाकर। मशीनों की बनावट में भी सुधार करना पावश्यक होता है। कुछ हद तक तो इसलिये कि उसके बर्गर मजदूर पर पहले से ज्यादा बवाब नहीं गला जा सकता, और कुछ हद तक इसलिये कि श्रम के घरों . उप० पु०, पृ० १६ । कार्यानुसार मजदूरी की दर में चूंकि कोई परिवर्तन नहीं हुमा था, इसलिये साप्ताहिक मजदूरी पैदावार की मात्रा पर निर्भर करती थी। 'उप. पु., पृ. २०॥ 'इन प्रयोगों में नैतिक तत्व की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। मजदूरों ने फैक्टरी-इंस्पेक्टर 'अब हम ज्यादा उत्साह से काम करते हैं, अब इस पुरस्कार की माशा सदा हमें प्रोत्साहित करती रहती है कि रात को हम जल्दी घर लौट सकेंगे; और धागे जोड़ने वाले सबसे कमसिन लड़के से लेकर सबसे बूढ़े मजदूर तक पूरी मिल में जिन्दादिली का वातावरण रहता है और हम सब एक दूसरे की बहुत मदद करते हैं।" (उप० पु०, पृ. २११) को बताया: " . 30-45
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/४६८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।