पूंजीवादी उत्पादन . को चला सकती है, या बह २०० ग्रासल-राकुमों को चला सकती है, या. बह ४० इंची कपड़े १५ करवों को तानी करने, मांडी देने मादि के उपकरणों समेत चला सकती है।" एक प्रश्व-शक्ति की दैनिक लागत और इस शक्ति द्वारा गति प्राप्त करने वाली मशीनों की पिलाई. छिनाई पहली सूरत में ४५० म्यूल-समों की पैदावार पर, दूसरी सूरत में २०० पोसल-राकुओं की पैदावार पर और तीसरी सूरत में शक्ति से चलने वाले १५ करवों की पैदावार पर फैल जाती है। इसका नतीजा यह होता है कि इस प्रकार की घिसाई-बिजाई से एक पौण सूत या एक गम कपड़े में बहुत ही सूक्म मात्रा में मूल्य स्थानांतरित होता है। ऊपर जिस भाप के होड़े का विक किया गया था, उसके बारे में भी यही बात सच है। उसकी दैनिक घिसाई- छिजाई, उसका कोयले का खर्च मावि चूंकि लोहे की उन विराट राशियों पर फैल जाता है, जिनको यह हपौड़ा एक दिन में कूट-पीटकर फेंक देता है, इसलिये एक हंग्वेट लोहे में बहुत घोड़ा सा ही मूल्य बढ़ता है। लेकिन यदि यह दैत्याकार मौजार कीलें गाड़ने के लिये इस्तेमाल किया जाये, तो, बाहिर है, बहुत अधिक मूल्य स्थानांतरित हो जायेगा। यदि किसी मशीन की काम करने की क्षमता,-प्रर्थात् उसके कार्यकारी पुओं की संख्या या, जहां पर बल का प्रश्न हो, वहां पर उनकी मात्रा,-हमें पहले से मालूम हो, तो उसकी पैदावार की मात्रा उसके कार्यकारी पुजों के बेग पर निर्भर करेगी; उदाहरण के लिये, तकुमों की गति पर या एक मिनट में हपौड़ा कितने प्रहार करता है, उनकी संख्या पर निर्भर करेगी। इन दैत्याकार हपोड़ों में से बहुत से एक मिनट में सत्तर बार भाषात करते हैं, और राइटर की तकुए गढ़ने की पेटेंट मशीन अपने छोटे-छोटे हबोड़ों से एक मिनट में ७०० माघात करती है। पदि यह मालूम हो कि मशीनें किस रफ्तार से अपना मूल्य पैदावार में स्थानांतरित कर रही है, तो इस प्रकार स्थानांतरित हो जाने वाले मूल्य की मात्रा मशीनों के कुल मूल्य पर निर्भर करेगी। मशीनों में जितना कम मम लगा होगा, वे उतना ही कम मूल्य पैदावार को उगी। मशीनें जितना कम मूल्य पैदावार को देंगी, उतनी ही अधिक उत्पादक होंगी और उनकी सेवाएं प्राकृतिक शक्तियों की सेवाओं से उतनी ही अधिक मिलती-चुलती होंगी। लेकिन जब मशीनों का उत्पादन मशीनों से होने लगता है, तब विस्तार तथा कार्य-क्षमता की तुलना में उनका मूल्य कम हो जाता है। जिस पाठक के मन में पूंजीवादी धारणामों ने घर कर रखा है, उसे यह देखकर स्वभावतया काफी आश्चर्य होगा कि यहां पर उस "सूद" का कोई जिक्र नहीं किया गया है, जो मशीन अपने पूंजीगत मूल्य के अनुपात में पैदावार में जोड़ देती है। किन्तु यह बात प्रासानी से समझी जा सकती है कि जिस तरह स्थिर पूंजी का कोई अन्य भाग नया मूल्य नहीं पैदा करता, उसी तरह चूंकि मशीन भी कोई नया मूल्य नहीं उत्पन्न करती, इसलिये वह "सूद' के नाम से कोई मूल्य पैदावार में नहीं जोड़ सकती। यहां पर यह बात भी स्पष्ट है कि जिस जगह हम लोग अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन पर विचार कर रहे हैं, वहां हम अतिरिक्त मूल्य के “सूद" नामक किसी भाग का अस्तित्व a priori (पहले से) मानकर नहीं चल सकते। हिसाब लगाने की वह पूंजीवादी प्रणाली क्या है, जो prima facie (पहली ही दृष्टि में) बिल्कुल बेतुकी और मूल्य के सृजन के नियमों के सर्वथा प्रतिकूल प्रतीत होती है, यह इस रचना की तीसरी पुस्तक में समझाया जायेगा।
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