४२८ पूंजीवादी उत्पादन . पी। बाद के दूसरे और भाप के तवाकषित उभय-विश इंजन का पाविष्कार होने तक कोई ऐसा मूल चालक नहीं बनाया जा सका था, वो कोयला और पानी खर्च करके खुर अपनी शक्ति पैदा कर नेता हो; जिसकी शक्ति पूर्णतया मनुष्य के नियंत्रण में हो; जिसे एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर ले जाना सम्भव हो; बो संचलन के साधन के रूप में काम में पा सकता हो; जो महरी हो, न कि पन-बाकी की तरह बेहाती बो पन-पक्तियों की तरह पूरे देहात में विसरा हुमा न हो, बल्कि जिसके द्वारा उत्पादन को शहरों में केन्नीभूत किया जा सके, जिसका सार्वत्रिक प्राविधिक उपयोग किया जा सके और जिसके निवास स्थान पर स्थानीय परिस्थितियों का अपेक्षाकृत बहुत कम प्रभाव पड़ता हो। बाहने प्रल १७८४ में अपने प्राविष्कार के उपयोग का वो एकाधिकार पत्र प्राप्त किया था, उसके विवरण से प्रकट होता है कि उनकी प्रतिमा कितनी महान कोटि की थी। उस विवरण में बाढ़ के बनाये हुए भाप के इंजन का एक विशिष्ट प्रयोजन के प्राविकार के रूप में वर्णन नहीं किया गया था, बल्कि उसमें कहा गया है कि यांत्रिक उद्योग में इस प्राधिकार का सार्वत्रिक उपयोग हो सकता है। उसमें वाट्ट ने उसके बहुत से उपयोग गिनाये हैं, जिनमें से बहुत से तो पाषी शताब्बी बार तक भी कार्यान्वित नहीं हो पाये थे। इसकी एक मिसाल है भाप का हवौड़ा। फिर भी वाट्ट को भाप के इंजन के महावरानी में इस्तेमाल हो सकने के बारे में सन्देह पा। पर उनके उत्तराधिकारी मूल्टन और वाट्ट ने १८५१ की प्रदर्शनी में महासागरों में चलने वाले बहाचों के लिये विराट प्राकार के भाप के इंजन बनाकर जब मनुष्य के हाथ के मोबार किसी यांत्रिक उपकरण के-प्रर्थात् मशीन के-प्रोबारों में बदल गये, तो चालक यंत्र ने भी तुरन्त एक ऐसा स्वतंत्र रूप प्राप्त कर लिया, जो मानव-शापित की सीमाओं से सर्वधा मुक्त था। इसके बाद वह एक अकेली मशीन, जिसपर हम अभी तक विचार करते रहे हैं, मशीनों से होने वाले उत्पावन का मात्र एक तत्व बन गयी। अब एक बालक यंत्र बहुत सी मशीनों को एक साथ पलाने लगा। एक साप जितनी मशीनें चलायी जाती हैं, उनकी संख्या के साथ-साथ बालक यंत्र भी विकसित होता जाता है, और संचालक यंत्र एक बहुत फैलता हुमा उपकरण बन जाता है। . जल-शक्ति के प्रायोगिक उपयोग पर पहले जो अनेक बंधन लगे हुए थे, उनमें से कई- एक से उसे माधुनिक टर्बाइन (जल-चक्र) ने मुक्त कर दिया है। "कपड़े के हस्तनिर्माण के शुरू के दिनों में कारखाना उस स्थान पर बनाया जाता था, जहां इतनी ऊंचाई से गिरने वाली कोई नदी होती थी, जिससे पन-चक्की को चलाना सम्भव होता था। और हालांकि पानी से चलने वाली मिलों की स्थापना से हस्तनिर्माण की घरेलू व्यवस्था का विघटन प्रारम्भ हो गया था, परन्तु फिर भी मिलें चूंकि अनिवार्य रूप से नदियों तट पर बोली जाती थीं और अक्सर दो मिलों के बीच काफी फासला होता था, इसलिये के एक शहरी व्यवस्था का नहीं, बल्कि एक देहाती व्यवस्था का ही भाग थीं। और जब तक नदी का स्थान भाप की शक्ति ने नहीं ले लिया, तब तक कारखानों को शहरों में, और ऐसे स्थानों में इकट्ठा नहीं किया जा सका, जहां पर भाप के उत्पादन के लिये आवश्यक कोयला मोर पानी पर्याप्त मात्रा में मिलते थे। भाप का इंजन ही कारखानों वाले शहरों का जनक ." (Fotia ; "Reports of Inspectors of Factories for 30th April, 1860" ['फैक्टरियों के इंस्पेक्टरों की रिपोर्ट, ३० अप्रैल १८६०'], पृ० ३६ ।) . .
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