पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/४०८

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श्रम का विभाजन और हस्तनिर्माण ४०५ . होता है और कहीं-कहीं पर कवि भी होता है, जो कुछ समुदायों में सुनार का और कुछ में पाठशाला के पंडित का स्थान ले लेता है। इन एकवर्जन व्यक्तियों की बीविका पूरे समुदाय के सहारे चलती है। अगर भावावी बढ़ जाती है, तो खाली पड़ी जमीन पर पुराने समुदाय के डांचे के मुताबिक एक नये समुदाय की नींव गल दी जाती है। पूरे डांचे से एक सुनियोजित मम-विभाजन का प्रमाण मिलता है। किन्तु इस प्रकार का विभाजन हस्तनिर्माण में असम्भव होता है, क्योंकि यहां तो लोहार और बई प्रादि के सामने एक ऐसी मण्डी होती है, जो कभी नहीं बदलती, और अधिक से अधिक केवल यह अन्तर होता है कि गांवों के प्राकार के अनुसार एक के बजाय दो-दो या तीन-तीन लोहार और बढ़ई प्रावि हो जाते हैं। प्राम-समुदाय में जिस नियम के अनुसार श्रम-विभाजन का नियमन होता है, वह एक प्राकृतिक नियम की भांति काम करता है, जिसके पारे कोई नहीं पा सकता; और साथ ही हर अलग-अलग कारीगर-जैसे लोहार, बढ़ई प्रादि-अपनी वर्कशाप में अपनी बस्तकारी की सारी क्रियाएं परम्परागत ढंग से, किन्तु स्वतंत्र रूप से करता चलता है और अपने ऊपर किसी अन्य व्यक्ति का प्राधिकार नहीं मानता। इन पात्म-निर्भर ग्राम-समुदायों में, जो लगातार एक ही रूप के समुदायों में पुनः प्रकट होते रहते हैं, और जब अकस्मात बरबाद हो जाते हैं, तो उसी स्थान पर और उसी नाम से फिर खड़े हो जाते हैं, - इन ग्राम-समुदायों में उत्पादन का संगठन बहुत ही सरल ढंग का होता है, और उसकी यह सरलता ही एशियाई समाजों की अपरिवर्तनशीलता की कुंजी है, उस अपरिवर्तनशीलता की, जिसके बिल्कुल विपरीत एशियाई राज्य सवा बिगड़ते और बनते रहते हैं और राजवंशों में होने वाले परिवर्तन तो मानो कभी रुकते ही नहीं। राजनीति के प्राकाश में जो तूफानी बावल उठते हैं, वे समाज के प्रार्षिक तत्वों के ढांचे को नहीं छू पाते। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं, कोई उस्ताद अधिक से अधिक कितने शागिर्दो और मजदूर कारीगरों को नौकर रख सकता है, शिल्पी संघों के नियम इसकी एक सीमा निश्चित . Tafgericht Mark Wilks, "Historical Sketches of the South of India" (मार्क वाइल्क्स , “हिन्दुस्तान के दक्षिण के ऐतिहासिक रेखा-चित्र'), London, 1810-1817, खण्ड १, पृ० ११८ - २००। हिन्दुस्तानी प्राम-समुदाय के विभिन्न रूपों का एक अच्छा वर्णन १८५२ में लन्दन से प्रकाशित जार्ज कैम्पबेल की रचना 'माधुनिक हिन्दुस्तान' (George Campbell, “Modern India”, London, 1852) # facica I 'इस देश के निवासी अत्यन्त प्राचीन काल से... इस सरल रूप के अन्तर्गत रह रहे हैं। गांवों की सीमाओं में कभी-कभार ही कोई परिवर्तन होता है ; और यद्यपि खुद इन गांवों को कभी-कभी युद्ध, अकाल तथा महामारी से हानि पहुंची है और यहां तक कि वे तबाह भी हो गये हैं, परन्तु गांव का वही नाम , वे ही सीमाएं, वे ही हित और यहां तक कि वे ही कुटुम्ब भी सदियों तक चलते गये हैं। उनके निवासी राज्यों के छिन्न-भिन्न हो जाने और बंट जाने से कभी परेशान नहीं होते ; जब तक गांव पूरा कायम रहता है, तब तक उन्हें इस बात की कोई चिन्ता नहीं होती कि उनका गांव किस राज्य को सौंप दिया गया है या किस राजा के अधिकार में पहुंच गया है। गांव की अन्दरूनी अर्थ-व्यवस्था ज्यों की त्यों रहती है। (Th. Stamford Raffles, oftar gaga atfyerta-rata, “The History of Java” ['जावा का इतिहास'], London, 1817, बण्ड १, पृ० २८५।) . . 11