'सहकारिता . पड़ती है, वह उससे कहीं अधिक होती है, जो मजदूरों की अपेक्षाकृत कम संख्या को पूरे साल भर प्रति सप्ताह मजदूरी देने के लिये पावश्यक होती है। इसलिये, सहकार करने वाले मजदूरों की संख्या प्रयवा सहकारिता का पैमाना सबसे पहले इस बात पर निर्भर करता है कि कोई खास पूंजीपति अम-शक्ति खरीदने पर कितनी पूंजी खर्च कर सकता है, या, दूसरे शब्दों में, किसी खास पूंजीपति का कितने मजदूरों के जीवन-निर्वाह के साधनों पर अधिकार है। और जो बात अस्थिर पूंजी के लिये सच है, वही स्थिर पूंजी के लिये भी सच है। मिसाल के लिये, १०-१० व्यक्तियों से काम लेने वाले ३० पूंजीपतियों में से हरेक कच्चे माल पर जितना खर्च करता है, ३०० व्यक्तियों से काम लेने वाले एक पूंजीपति को कच्चे माल पर उसका तीस-गुना खर्च करना पड़ेगा। यह सच है कि सामूहिक ढंग से उपयोग में पाने वाले श्रम के प्राचारों का मूल्य तथा परिमाण उसी रफ्तार से नहीं बढ़ते, जिस रफ्तार से मजदूरों की तादाद बढ़ती है, मगर फिर भी वे काफी बढ़ जाते हैं। इसलिये, अलग-अलग पूंजीपतियों के हाथों में उत्पादन के बहुत सारे साधनों का केन्द्रीभूत हो जाना मजदूरी पर काम करने वाले मजदूरों की सहकारिता की एक मावश्यक भौतिक शर्त है, और सहकारिता का विस्तार अथवा उत्पादन का पैमाना इस केन्द्रीकरण के विस्तार पर निर्भर करता है। इसके पहले हम एक अध्याय यह देख चुके हैं कि केवल पूंजी की एक खास अल्पतम मात्रा के होने पर ही यह सम्भव होता है कि मजदूरों की जिस संस्था से काम लिया जा रहा है और, इसलिये, बो अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है, वह इसके लिये पर्याप्त हो कि मालिक जुन शारीरिक श्रम करने से मुक्त हो जाये, अपने को छोटे मालिक से पूंजीपति में बदल गले और इस प्रकार पूंजीवादी उत्पादन बाकायदा कायम हो जाये। अब हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि पूंजी की एक खास पल्पतम माना की उपस्थिति बहुत सी अलग-अलग चलने वाली स्वतंत्र प्रक्रियामों के एक संयुक्त सामाजिक प्रक्रिया में परिणत हो जाने की भी एक पावश्यक शर्त है। हमने यह भी देता था कि शुरू में श्रम के लिये पूंजी की प्रचीनता केवल इस बात का एक रस्मी नतीजा दी कि मजदूर खुद अपने लिये काम करने के बजाय पूंजीपति के लिये पौर इस कारण पूंजीपति के मातहत काम करने लगा था। पर मजदूरी पर काम करने वाले बहुत से मजदूरों के सहकार से पूंजी का प्रभुत्व खुद भम-प्रक्रिया के सम्पन्न होने की पावश्यक शर्त बन जाता है,-वह उत्पादन की पावश्यक शर्त बन जाता है। अब उत्पादन के क्षेत्र में पूंजीपति का शासन रण-क्षेत्र में सेनापति के शासन के समान ही अनिवार्य हो जाता है। बड़े पैमाने के संयुक्त मम को एक ऐसे संचालनकर्ता अधिकारी की न्यूनाधिक मावश्यकता रहती है, जो अलग-अलग व्यक्तियों की कार्रवाइयों के बीच ताल-मेल बैठा सके और उन सामान्य कामों को कर सके, जिनका करना संयुक्त संघटन के उस कार्य के कारण पावश्यक हो जाता है, जो इस संयुक्त संघटन के अलग-अलग अंगों के कार्य से बिल्कुल भिन्न होता है। अकेला बायोलिनवादक पर अपना संचालक होता है, परन्तु पाच-र के लिये अलग से एक संचालक की पावश्यकता होती है। जिस क्षण से पूंजी नियंत्रण में काम करने वाला मन सहकारी भम बन जाता है, उसी क्षण से संचालन करने, देख-रेख रखने तथा ताल-मेल बैठाने का काम पूंजी का कार्य बन जाता है। एक बार पूंजी का कार्य बन जाने पर उसमें कुछ खास विशेषताएं पैदा हो जाती है। पूंजीवावी उत्पादन का मुख्य प्रयोजन, उसका लक्ष्य एवं उद्देश्य अधिक से अधिक मात्रा .
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