अतिरिक्त मूल्य की दर और अतिरिक्त मूल्य की राशि ३४९ . . सरल बीजगणित के दृष्टिकोण से यह समझने के लिये बहुत से बीच के विन्तुषों को समझने की पावश्यकता होती है कि मी सबमुच कोई मात्रा हो सकती है। प्रामाणिक पर्यशास्त्र इस नियम की स्थापना तो नहीं करता, पर नैसर्गिक भाव से उसे मानकर चलता है, क्योंकि यह मूल्य के सामान्य नियम का एक प्रावश्यक निष्कर्ष है। प्रामाणिक प्रशास्त्र एक सबस्त अपकर्षण के द्वारा इस नियम को अपनी विरोधी घटनामों से टकराने से बचाने की कोशिश करता है। हम बाव को यह देखेंगे कि रिकारों के मत के अर्थशास्त्री किस तरह रास्ते के इस पत्थर से टकराकर गिर पड़े हैं। घटिया किस्म का प्रर्वशास्त्र, जिसने "सचमुच कुछ भी नहीं सोता है, अन्य स्थलों की भांति यहां भी दिखावटी बातों का दामन थामे रहता है और उस नियम को अनदेखा कर देता है, जिससे इन बातों का नियमन होता है और जिससे ये बातें स्पष्ट होती है। स्पिनोवा के मत के विक्ट घटिया किस्म के पर्वशास्त्र का विश्वास है कि "प्रमान एक पर्याप्त कारण है"। किसी समाज की कुल पूंजी के द्वारा बो मम दिन प्रति दिन गतिमान होता है, उसे एक सामूहिक काम का दिन माना जा सकता है। मिसाल के लिये, यदि मजदूरों की संख्या १० लाल है और एक मजदूर के काम का पोसत दिन १० घण्टे का है, तो काम का सामाजिक दिन १ करोड घों का होगा। यदि काम के इस दिन की लम्बाई पहले से निश्चित हो, तो उसकी सीमाएं चाहे शारीरिक कारणों से निर्धारित हुई हों या सामाजिक कारणों से, अतिरिक्त मूल्य की राशि को केवल मजदूरों की संस्था में-यानी मेहनत करने वाली मावादी की संख्या में- वृद्धि करके ही बढ़ाया जा सकता है। यहां समाज की कुल पूंची कितने प्रतिरिक्त मूल्य का उत्पादन कर सकती है, उसकी गणितगत सीमा इस बात से निर्धारित होती है कि प्राबादी कितनी बढ़ सकती है। इसके विपरीत, यदि मावादी की संस्था पहले से निश्चित हो, तो यह सीमा इस बात पर निर्भर करती है कि काम के दिन को कितना लम्बा खींचना मुमकिन है। किन्तु माने वाले अध्याय में पाठक देखेंगे कि यह नियम अतिरिक्त मूल्य के केवल उसी रूप पर लागू होता है, जिसपर हमने अभी तक विचार किया है। अभी तक हमने अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन का जितना विवेचन किया है, उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मुद्रा की या मूल्य की हर रकम को इच्छानुसार पूंजी में नहीं बदला जा सकता। इस प्रकार का रूपान्तरण करने के लिये, असल में, यह जरूरी होता है कि जो व्यक्ति मुद्रा अथवा मालों का मालिक है, उसके हाथ में पहले से ही कम से कम एक निश्चित मात्रा में मुद्रा प्रषवा विनिमय-मूल्य विद्यमान हो। अस्थिर पूंजी की यह अल्पतम मात्रा एक अकेली श्रम-शक्ति की लागत होती है, जिसका दिन प्रति दिन पूरे साल भर अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के लिये प्रयोग किया जाता है। यदि इस मजदूर के पास - 'इसका और विस्तृत विवरण चौथी पुस्तक में मिलेगा। "समाज का श्रम, अर्थात् उसका पार्थिक समय , एक निश्चित परिमाण होता है। मान लीजिये कि वह दस लाख लोगों का दस घण्टे रोजाना या १ करोड़ घण्टे के बराबर है . पूंजी की वृद्धि की अपनी सीमा होती है। किसी भी निश्चित काल में, आर्थिक समय का में कितना उपयोग किया जाता है, उसी पर यह निर्भर करता है कि पूंजी इस सीमा के कितने निकट पहुंच सकी है।" ("An Essay on the Political Economy of Nations" [ राष्ट्रों के अर्थशास्त्र पर एक निबंध'], London, 1821, पृ० ४७, ४६1) .
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