३४६ पूंजीवादी उत्पादन . अतिरिक्त मूल्य की राशि के बराबर होगा, या, दूसरे शब्दों में, एक पूंजीपति द्वारा एक साथ जितनी भम-शक्तियों का शोषण किया जाता है, उनकी संख्या तथा प्रत्येक अलग-अलग श्रम- शक्ति के शोषण की मात्रा के मिभ-अनुपात से ही अतिरिक्त मूल्य को कुल राशि निर्धारित होगी। मान लीजिये कि अतिरिक्त मूल्य की राशि 'अमू' है, प्रत्येक मजदूर अलग-अलग एक प्रसित दिन में 'म' अतिरिक्त मूल्य तैयार करता है, एक मजदूर की श्रम शक्ति को खरीदने में रोख 'अस्थि' अस्थिर पूंजी लगायी जाती है, कुल अस्थिर पूंजी 'अपू' है, एक पोसत भम-शक्ति श्र/अतिरिक्त श्रम) का मूल्य 'म' है, उसके शोषण की मात्रा है और काम करने वाले मजदूरों श्रमावश्यक श्रम/ की संस्था 'स' है। तब - अस्थि प्रपू अमू श्र •Xस मx . हम बराबर यह मानकर चल रहे हैं कि न सिर्फ एक पोसत श्रम-शक्ति का मूल्य स्थिर है, बल्कि पूंजीपति जिन मजदूरों से काम ले रहा है, वे सब भी बिल्कुल मौसत ढंग के मजबूर है। कुछ ऐसे अपवाद भी होते हैं, जब शोषित मजदूरों की संख्या में जो वृद्धि होती है, अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन में उसके अनुपात में वृद्धि नहीं होती; परन्तु ऐसा तब होता है, जब श्रम- शक्ति का मूल्य स्थिर नहीं रहता। इसलिये अतिरिक्त मूल्य की एक निश्चित राशि के उत्पावन में यदि एक तत्व कम हो जाता है, तो उसकी पति दूसरे तत्व को बढ़ाकर पूरी की जा सकती है। यदि अस्थिर पूंजी घट जाती है और साथ ही अतिरिक्त मूल्य की दर उसी अनुपात में बढ़ जाती है, तो कुल जितना अतिरिक्त मूल्य पहले पैदा होता था, उतना ही अब भी पैदा होगा। जैसा कि हम पहले मान चुके हैं, यदि पूंजीपति को रोजाना १०० मजदूरों का शोषण करने के लिये ३०० शिलिंग की पूंजी लगानी पड़ती है और यदि अतिरिक्त मूल्य की दर ५० प्रतिकात है, तो यह ३०० शिलिंग की अस्थिर पूंजी १५० शिलिंग -या काम के १००४३ घण्टों-के बराबर अतिरिक्त मूल्य पैदा करेगी। यदि अतिरिक्त मूल्य की बर दुगुनी हो जाती है, या काम का दिन ६ घण्टे से बढ़ाकर ६ घण्टे के बजाय १२ घण्टे का कर दिया जाता है, और साथ ही अस्थिर पूंजी घटाकर भाषी, यानी १५० शिलिंग, कर दी जाती है, तो भी वह १५० शिलिंग- अथवा काम के ५०४६ घण्टों के बराबर अतिरिक्त मूल्य ही पैदा करेगी। इसलिये मस्थिर पूंजी की कमी से जो पति होती है, उसे भम-पाक्ति के शोषण की मात्रा को उसी अनुपात में बढ़ाकर पूरा किया जा सकता है, या अगर काम करने वाले मजदूरों की संख्या में कमी मा जाती है, तो उसकी क्षति को उसी अनुपात में काम के दिन का विस्तार करके पूरा किया जा सकता है। इसलिये, कुछ निश्चित सीमानों के भीतर, पूंजी कितने श्रम का शोषण कर सकती है, यह बात इससे स्वतंत्र होती है कि उसे मजदूरों की कितनी बड़ी संख्या मिल सकती है।' मालूम होता है, घटिया किस्म के अर्थशास्त्रियों को इस प्राथमिक नियम का ज्ञान नहीं है। वे श्रम का बाजार-भाव उसकी मांग और पूर्ति से निर्धारित करना चाहते हैं और समझते है कि इस तरह उन्होंने एक ऐसा पालम्ब खोज निकाला है, जिससे वे पार्किमिदीज की तरह दुनिया को तो हिला नहीं पायेंगे, पर उसकी गति को रोक देंगे। .
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