पूंजीवादी उत्पादन भी स्नायु, रक्त की एक भी खूब उसके शरीर में बाकी है," तब तक पूंजी-मी गपन उसे अपने पंचों से मुक्त नहीं होने देगी। "यातनायें देने वाले सर्प" से अपनी "रक्षा" करने के लिये मजदूरों को एक साथ मिलकर सोचना होगा और एक वर्ग के रूप में ऐसा कानून खबर्दस्ती पास कराना होगा, जो एक सर्वाक्तिमान सामाजिक बंधन के रूप में खुब मजदूरों को पूंजी के साथ स्वेच्छापूर्वक करार करके अपने पाप को तथा अपने परिवारों को गुलामी और मौत के हाथों बेच देने से रोक देगा।' और इसलिये "मनुष्य के हस्तांतरणीय अधिकारों" की भारी-भरकम सूची के स्थान पर प्रब कानून द्वारा सीमित काम के दिन का वह साधारण सा Magma Charta (महान अधिकार-पत्र) सामने प्राता है, जो यह स्पष्ट कर देगा कि "मो समय मजदूर बेच बेता है, वह समय कब समाप्त हो जाता है और उसका अपना समय कब प्रारम्भ होता है।" Quantum mutatus ab illol (चित्र में कितना बड़ा परिवर्तन हो गया है!) 1 Friedrich Engels, उप० पु०, पृ. ५। 'उद्योग की जिन शाखाओं में १० घण्टे का कानून लागू है, उनमें उसने “भूतपूर्व देर तक काम करने वाले मजदूरों के समय से पहले ही बूढ़े हो जाने की क्रिया का अन्त कर दिया है।" ("Reports, &c., for 31st October, 1859" ["रिपोर्ट, इत्यादि , ३१ अक्तूबर १८५६'], पृ० ४७।)यह असम्भव है कि (फेक्टरियों में) एक निश्चित समय से अधिक देर तक मशीनों को चालू रखने के लिये पूंजी का इस्तेमाल किया जाये और वहां काम करने वाले मजदूरों के स्वास्थ्य एवं नैतिकता को हानि न पहुंचे। और मजदूर खुद अपनी रक्षा करने की स्थिति में नहीं होते।" (उप. पु., पृ० ८।) 3 "इससे भी बड़ा वरदान यह है कि आखिर मजदूर के समय और उसके मालिक के समय का अन्तर स्पष्ट कर दिया गया है। अब मजदूर जानता है कि जो समय वह बेच देता है, वह कब समाप्त होता है और उसका अपना समय कब प्रारम्भ हो जाता है। और उसे चूंकि इस बात का निश्चित पूर्व-ज्ञान होता है, इसलिये वह अपने मिनटों का अपनी इच्छानुसार खर्च करने के लिये पहले से प्रबंध कर सकता है।" (उप. पु.,पृ. ५२। ) “ मजदूरों को अपने समय का खुद मालिक बनाकर (फैक्टरी-कानूनों ने ) उनको एक ऐसी नैतिक शक्ति दे दी है, जो उनको अन्त में राजनीतिक सत्ता पर अधिकार कर लेने के लक्ष्य की ओर ले जा रही है।" (उप० पु०, पृ. ४७। ) दबे हुए व्यंग्य के साथ और बहुत नपे-तुले शब्दों में फैक्टरी- इंस्पेक्टरों ने इस बात का संकेत किया है कि इस कानून ने असल में पूंजीपति को भी उस पाशविक क्रूरता से मुक्त कर दिया है, जो उस व्यक्ति में स्वभावतया पा जाती है, जो केवल पूंजी का मूर्त रूप होता है, और उसने पूंजीपति को थोड़ी सी “संस्कृति" प्राप्त करने का समय दे दिया है। इसके पहले "मालिक के पास रुपये के सिवा और किसी चीज के लिये समय नहीं था और नौकर के पास मेहनत के सिवा और किसी चीज के लिये समय नहीं था।" (उप० पु०, पृ. ४८1)
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