३१८ पूंजीवादी उत्पादन . . " ('पालियों की व्यवस्था') के नाम से यह "योजना" अमल में लापी गयी। मिसाल के लिये, सुबह के ५.३० बजे से दोपहर के १.३० बजे तक ९ वर्ष से १३ वर्ष तक के बच्चों को एक पाली से काम लिया जाने लगा और दोपहर के १.३० बजे से रात के ८.३० बजे तक एक दूसरी पाली से। बच्चों के काम के सम्बंध में पिछले बाईस वर्ष में जितने कानून पास हुए थे, कारखानेवारों में बेशर्मी से उन सबकी अवहेलना की थी। इसके इलाम के तौर पर कड़वी गोली पर पौर चीनी बढ़ायी गयी, ताकि वह उनको पसन्द पाये। संसद ने फैसला कर दिया कि १ मार्च १९३४ के बाद ११ वर्ष से कम उम्र का कोई बच्चा, १ मार्च १९३५ के बाद १२ वर्ष से कम उम्र का कोई बच्चा और १मार्च १५३६ के बाद १३ वर्ष से कम उम्र का कोई बच्चा किसी फ्रेक्टरी में मा० घन्टे रोजाना से ज्यादा काम नहीं कर पायेगा। यह " उदारतावाद", जिसमें "पूंजी" का इतना अधिक बयाल रखा गया था, इसलिए और भी उल्लेखनीय है कि ग. कारें, सर ए. कार्लिक्स, सर बी० बोग, सर एस. बेली, मि० गरी प्रादि-लन्दन के सबसे अधिक प्रतिष्ठित physicians (गक्टरों) और surgeons (सर्वनों)-ने हाउस प्रात कामन्स के सामने बयान देते हुए कहा था कि इस मामले में देर करना खतरनाक है। गक्टर कार ने तो बहुत ही यो दूक बात कही थी: "लोगों को असमय मार गलने के लिए जो भी तरीका इस्तेमाल किया जाये, उसे रोकने के लिए कानून बनाना जरूरी है। और इसे (फ्रक्टरियों की प्रणाली को) निश्चय ही लोगों को समय से पहले मार गलने का सबसे अधिक निर्दयतापूर्ण तरीका माना जाना चाहिये। जिस "सुपरी हुई" संसब ने कारखानेदारों के हितों का खयाल रखने में बहुत नजाकत दिलाते हुए १३ वर्ष से कम उम्र के बच्चों को पागामी वर्षों में हर सप्ताह ७२ घन्टे फेक्टरी के नरक में पिसने की सजा दी थी, उसी ने, दूसरी मोर, अपने मुक्ति-कानून के बरिये, इसी प्रकार बूंद-बूंब करके लोगों को पावादी का रस पिलाता था, बागानों के मालिकों पर शुरू से ही यह प्रतिबंध लगा दिया कि वे किसी हबशी पुलाम से ४५ घण्टे प्रति सप्ताह से अधिक काम नहीं ले सकते। परन्तु पूंजी को इस सब से संतोष नहीं हुमाया। उसने खूब शोर-शराबे के साप पान्दोलन शुरू किया, जो कई बरस तक चलता रहा। यह पान्योलन खास तौर पर उन लोगों की उन्न के बारे में था, वो बच्चे समझे जाते थे और इसलिये जिनसे घन्टे से ज्यादा काम लेने की मनाही थी और जिनपर कुछ हद तक अनिवार्य शिक्षा के नियम भी लागूहोते थे। पूंजीवादी मानव- विज्ञान का कहना था कि बचपन १० वर्ष में या हब से हब ११ वर्ष में खतम हो जाता है। फ्रेक्टरी-कानून के पूरी तरह अमल में पाने का समय, यानी १८३६ का निर्णायक वर्ष जितना नववीक प्राता जाता था, कारखानेदारों की भीड़ उतनी ही अधिक पगलाती जाती थी। सच पूछिये, तो इन लोगों ने सरकार को ग्रा-धमकाकर यहां तक झुका लिया कि १८३५ में वह बचपन की सीमा को १३ वर्ष से घटाकर १२ वर्ष कर देने की सोचने लगी। पर इसी बीच pressure from without (बाहरी वाव) ने और भयानक रूप धारण कर लिया था। हाउस माफ़ कामन्स की हिम्मत ने जवाब देविया । उसने १३ वर्ष से कम उम्र के बच्चों को ८ घन्टे से अधिक पूंजी के पके नीचे पिसने के लिये गलने से इनकार कर दिया, और १८३३ का कानून पूरी तरह अमल में पाया। जून १0 तक उसमें कोई तबदीली नहीं हुई। इस कानून में पटरियों के काम का रस बरस तक नियमन किया-पहले पाक्षिक पसे, फिर पूरी तरह। इन बस वर्षों में पटरियों के इंस्पेक्टरों में वो रिपोर्ट सरकार को इस -
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