पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/२८८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काम का दिन २८५ . रविवार को काम करने के बारे में कहा जा रहा है), तो इसका केवल यही परिणाम होगा कि मजदूरों और मालिकों के सम्बंध बिगड़ जायेंगे... और एक ऐसी मिसाल कायम होगी, जो धर्म, नैतिकता और सामाजिक व्यवस्था के लिये खतरनाक है...समिति का विश्वास है कि १२ घण्टे रोजाना से स्यावा लगातार काम लेना मजदूर के घरेलू एवं निजी जीवन में हस्तक्षेप करना है, यह हरेक मजदूर के घर में टांग पड़ाना और उसे पुत्र, भाई, पति और पिता के रूप में अपने पारिवारिक कर्तव्यों को पूरा न करने देना है, और इसलिये नैतिक दृष्टि से उसका परिणाम विनाशकारी होता है। यदि किसी मबूर से १२ घन्टे से ज्यादा काम लिया जाता है, तो उसका स्वास्न्य नष्ट होने लगता है, उसको बुढ़ापा बहुत जल्दी मा घेरता है और उसकी असमय मृत्यु हो जाती है। इस तरह, यह प्रथा मजदूरों के परिवारों को चौपट कर देती है और मजदूर- कुटुम्बों को क उसी समय असहाय कर देती है, जब उनको देखरेल और सहायता की सबसे अधिक पावश्यकता होती है।"1 अभी तक हमने प्रापरलेस का विक किया है। प्रापरलेस के बलगमस्मभ्य के दूसरी मोर, स्कोटलेज में, खेतिहर मजदूर, या हलवाहा, इस बात का विरोध कर रहा है कि उससे बहुत ही बुरे मौसम में भी रोखाना १३-१४ घण्टे काम लिया जाता है और साथ ही (शनिवार को छुट्टी का पवित्र दिन मानने वालों के इस देश में) उसे रविवार को ४ घन्टे का अतिरिक्त काम करना पड़ता है। और वहाँ लन्दन में तीन रेलवे-मजदूर-एक गार्ड, एक इंजन-बाइबर और एक सिगनलमैन - एक मजिस्ट्रेट के सामने बड़े हैं। रेल की एक भारी दुर्घटना में सैकड़ों मुसा- फिर पान की मान में मुल्के अवम को रवाना हो गये हैं। दुर्घटना का कारण है कर्मचारियों की लापरवाही। वे लोग पूरी के सामने एक भावाब से यह कहते हैं कि बस या बारह बरस पहले उनको केवल पाठ घण्टे रोजाना काम करना पड़ता था। परन्तु पिछले पांच या छ: सालों में उनसे १४, १८ और २० घण्टे तक काम लिया जाने लगा है, और गव कमी छुट्टियों के दिनों में काम का विशेष बवाव होता है और छुट्टियां मनाने वालों के लिये स्पेशल ट्रेनें चलती हैं, तो अक्सर उनको बिना किसी अवकाश के ४० या ५०.घन्टे तक लगातार काम करना पड़ता है। . . 1उप. पु.॥ ३५ जनवरी १८६६ को एडिनबरा के नजदीक , लास्सवेड में खेतिहर मजदूरों की एक सार्वजनिक सभा हुई। (देखिये “Workman's Advocate" का १३ जनवरी १८६६ का अंक।) १८६५ ख़तम होते-होते स्कोटलैण्ड में बेतिहर मजदूरों की एक ट्रेड यूनियन बन गयी थी। यह एक ऐतिहासिक घटना थी। मार्च १८६७ में इंगलैण्ड के बकिंघमशायर नामक एक सबसे अधिक उत्पीड़ित खेतिहर जिले में खेतिहर मजदूरों ने अपनी मजदूरी ९-१० शिलिंग से बढ़ाकर १२ शिलिंग करवाने के लिये हड़ताल कर दी। (उपरोक्त अंश से यह बात स्पष्ट हो गयी होगी कि इंगलैण्ड के बेतिहर सर्वहारा का जो आन्दोलन १८३० के हंगामाखेज प्रदर्शनों के कुचले जाने के बाद मौर खास तौर पर गरीबों के सम्बंध में नये कानूनों के जारी हो जाने के बाद पूरी तरह कुचल दिया गया था, वह उन्नीसवीं सदी के सातवें दशक में फिर प्रारम्भ हो गया था और १८७२ में तो उसने युगान्त रूप धारण कर लिया था। इस ग्रंथ के दूसरे बण्ड में मैं इसका और साथ उन सरकारी प्रकाशनों का फिर जिक्र करूंगा,जो १८६७ के बाद प्रकाशित हुए हैं और जिनमें इंगलैण्ड के बेतिहर मजदूरों की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। - - तीसरे संस्करण में जोड़ा गया अंश।)