२६२ पूंजीवादी उत्पादन 1 इसलिये काम के दिन से सम्बन्धित परिवर्तन शारीरिक एवं सामाजिक सीमानों के भीतर होते है। लेकिन ये दोनों प्रकार की सीमाएं बहुत लोचदार होती है, और दोनों के भीतर बहुत काफी गुंजाइश रहती है। चुनावे हम कहीं तो काम का दिन ८ घण्टे का, कहीं १० घन्टे का और कहीं १२, १४, १६ या १८ घण्टे का पाते हैं। मतलब यह कि काम के दिन बहुत ही भिन्न लम्बाइयों के होते हैं। पूंजीपति ने भम-शक्ति दैनिक पर पर खरीदी है। काम के एक दिन के लिये भम-शक्ति उपयोग-मूल्य पर पूंजीपति का अधिकार होता है। इस प्रकार उसने दिन भर मखदूर से अपने लिये काम कराने का अधिकार प्राप्त कर लिया है। लेकिन प्रश्न उठता है कि काम के दिन की क्या परिभाषा है?' काम का दिन हर हालत में प्राकृतिक दिन से छोटा होगा। लेकिन कितना छोटा? इस ultima Thule (अन्तिम बिन्दु) के बारे में-काम के दिन की अनिवार्य सीमा के बारे में-पूंजीपति के कुछ अपने विचार है। पूंजीपति की शकल में वह महब मूर्तिमान पूंची होता है। उसकी प्रात्मा पूंजी की प्रात्मा होती है। किन्तु पूंजी केवल एक प्रेरणा से अनुप्रेरित होती है। वह है उसकी मूल्य तथा अतिरिक्त मूल्य का सृजन करने की प्रवृत्ति, वह है उसकी अपने स्थिर उपकरण उत्पादन के सापनों-से अधिकतम मात्रा में अतिरिक्त भम का अवशोषण कराने की प्रवृति।' पूंजी मुर्वा मम होती है, वो गपन की तरह केवल जीवित श्रम को चूसकर ही निन्दा रहता है, और यह जितना अधिक मम चूसता है, उतना ही फलता-फूलता है। मखदूर जिस समय तक काम करता है, उस समय तक पूंजीपति उस अम-शक्ति का उपभोग करता है, जिसे उसने मजदूर से खरीदा है। . - यह प्रश्न सर रोबर्ट पील के उस प्रसिद्ध प्रश्न से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, जो उन्होंने बिर्मिघम के चेम्बर माफ कामर्स से किया था। सर रोबर्ट पील का प्रश्न था: “पाँड क्या चीज है?" यह एक ऐसा प्रश्न था, जो केवल पूछा जा सकता था, तो इसलिये कि मुद्रा की प्रकृति के विषय में पील भी उतने ही अंधकार में थे, जितने बिर्मिघम के "नन्हे शिलिंग वाले" (मूल पाठ में "little shilling men" का प्रयोग किया गया था, जिसके दो मर्ष हो सकते है: एक तो "अवमूल्यन के समर्थक" और दूसरा “निकम्मे लोग")। "पूंजीपति का उद्देश्य यह होता है कि उसने जितनी पूंजी लगायी है, उससे अधिकतम मात्रा में श्रम प्राप्त करने में सफल हो (drobtenir du capital dépense le plus forte som- me de travail possible)." (J. G. Courcelle-Seneuil, “Traité théorique et pratique des entreprises industrielles", दूसरा संस्करण, Paris, 1857, पृ० ६३।) "यदि एक दिन में एक घण्टे का श्रम जाया हो जाता है, तो व्यापारिक राज्य की कड़ी हानि होती है... 'इस राज्य के श्रम करने वाले गरीबों में विलास की वस्तुमों का बहुत बड़े पैमाने पर उपयोग होता है; कारखानों में काम करने वाले लोगों में यह बात बास तौर पर देखने में पाती है, जिसके कारण वे अपना बहुत सा समय भी खर्च कर गलते है, और समय का उपभोग सब से घातक उपभोग होता है।" ("An Essay on Trade and Commerce, &c." ['व्यापार मौर वाणिज्य पर एक निबंध, इत्यादि'], पृ. ४७ पौर १५३ ।)
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