२३४ पूंजीवादी उत्पादन . भम-प्रक्रिया के वैयक्तिक उपकरण की-अर्थात् कार्य-रत अम-शक्ति की-बात दूसरी है। जहाँ, एक तरफ, मजदूर इस कारण कि उसका मम एक विशिष्ट प्रकार का मम होता है और उसका एक खास उद्देश्य होता है, उत्पादन के साधनों के मूल्य को सुरक्षित रखता है और उनको पैदावार में स्थानांतरित कर देता है, वहां, दूसरी तरफ़, वह इसके साथ-साथ केवल काम करने के परिणामस्वरूप हर बार अतिरिक्त प्रवदा मया मूल्य भी पैदा कर देता है। मान लीजिये कि उत्पादन की प्रक्रिया ठीक उस समय रुक जाती है, जब मजदूर खुद अपनी श्रम- शक्ति के मूल्य का सम-मूल्य पैदा कर लेता है, यानी, मिसाल के लिए, जब वह छः घन्टे के बम से तीन शिलिंग का मूल्य जोर देता है। यह मूल्य पैदावार के कुल मूल्य का वह भाग बेता है, जो उत्पादन के साधनों के कारण पैदावार में पाने वाले मूल्य के भाग से अतिरिक्त होता है। उत्पादन की प्रक्रिया में केवल इतना ही नया मूल्य तयार होता है, या पैराबार के मूल्य का केवल यही एक ऐसा भाग है, जो उत्पादन की प्रक्रिया द्वारा पैरा होता है। बाहिर है, हम यह बात नहीं भूलते कि यह नया मूल्य केवल उस मुद्रा की स्थान पूर्ति करता है, पूंजीपति ने श्रम-शक्ति की खरीद में पेशगी खर्च कर दी थी और जिसे मजदूर ने जीवन की आवश्यकताओं पर खर्च कर दिया था। जहां तक खर्च कर दी गयी मुद्रा का सम्बंध है, नया मूल्य केवल एक पुनरुत्पादित मूल्य होता है। परन्तु फिर भी यह पुनरुत्पादन एक वास्तविक पुनरुत्पादन होता है; वह उत्पादन के साधनों के मूल्य के पुनरुत्पादन की भांति केवल दिखावटी नहीं होता। यहां भी एक मूल्य का स्थान दूसरा मूल्य ले लेता है, पर यह क्रिया नये मूल्य के सृजन द्वारा सम्पन्न होती है। किन्तु ऊपर हम यह देख चुके हैं कि केवल श्रम-शक्ति के मूल्य के सम-मूल्य का पुनरुत्पादन करके उसका पैदावार में समावेश करने के लिए जितना समय मावश्यक होता है, . . फिर, उत्पादन के ऐसे तमाम सम्भव तत्त्वों को विस्तार के साथ गिनाने के बाद, जिनका मूल्य पैदावार में पुनः प्रकट होता है, इस अंश में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि "मनुष्य के अस्तित्व तथा सुख के लिए जिन नाना प्रकार के खाद्य पदार्थों, कपड़े और पाश्रय की पावश्यकता होती है, वे भी बदल जाते हैं। उनका समय-समय पर उपभोग किया जाता है, और उनका मूल्य पुनः उस नयी शक्ति के रूप में प्रगट होता है, जिसका शरीर तथा मस्तिष्क में संचार हो जाता है और जो नयी पूंजी बन जाती है, जिसका उत्पादन के काम में पुनः उपयोग किया जाता है।" (F. Wayland, उप० पु०, पृ. ३१, ३२।) यहां जो अन्य अनेक भटपटी बातें कही गयी है, उनकी ओर ध्यान न देकर केवल इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि नयी शक्ति के रूप में जो कुछ पुनः प्रकट होता है, वह रोटी का दाम नहीं होता, बल्कि वह रोटी का रक्त-निर्माण करनेवाला अंश होता है। दूसरी पोर, इस नयी शक्ति के मूल्य में जो कुछ पुनः प्रकट होता है, वह जीवन-निर्वाह के साधन नहीं होते, बल्कि उन साधनों का मूल्य होता है। जीवन के लिए पावश्यक वस्तुएं यदि वे ही रहें, पर उनका दाम माधा हो जाये, तो उनसे पहले जितनी ही मांस-पेशियां और हड्डियां, पहले जितनी ही नयी शक्ति तैयार होगी, लेकिन उनसे पहले जितने मूल्य की नयी शक्ति नहीं तैयार होगी। “मूल्य" तथा "शक्ति" की यह गड़बड़ी और उसके साथ-साथ हमारे लेखक की पाखण्डपूर्ण अस्पष्टता असल में इस बात की कोशिश है- हालांकि बेसूद ही-कि अतिरिक्त मूल्य के पैदा होने का कारण केवल यह बता दिया जाये कि पहले से मौजूद मूल्य पुनः प्रकट हो जाते है। .
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