श्रम-प्रक्रिया और अतिरिक्त मूल्य पैदा करने की प्रक्रिया २११ . . . . अनुभाग २- अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन पूंजीपति जिस पैदावार पर अधिकार कर लेता है, वह उपयोग-मूल्य होती है, जैसे, मिसाल के लिए, सूत या जूते। लेकिन यद्यपि एक पर्व में जूते समस्त सामाजिक प्रगति का प्राधार होते है और हमारा पूंजीपति निश्चित रूप से "प्रगतिवादी" है, फिर भी वह केवल बूतों के लिए जूते नहीं बनाता। मालों के उत्पादन में उपयोग मूल्य ऐसी वस्तु कदापि नहीं होता, "qu'on aime pour lul-meme" ("जिससे केवल उसी के लिए प्यार किया जाता हो")। पूंजीपति उपयोग-मूल्यों को केवल इसीलिये और उसी हद तक तैयार करते हैं, जिस हब तक कि वे विनिमय-मूल्य के भौतिक जीवापार, या विनिमय-मूल्य के भचार, होते हैं। हमारे पूंजीपति के सामने बो उद्देश्य होते हैं। एक तो वह कोई ऐसा उपयोग-मूल्य तैयार करना चाहता है, जिसका विनिमय-मूल्य हो, यानी वह कोई ऐसी वस्तु तैयार करना चाहता है, जो बेची जा सके, या यूं कहिये कि यह कोई माल तैयार करना चाहता है। दूसरे, वह कोई ऐसा माल तैयार करना चाहता है, जिसका मूल्य उसके उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले मालों के कुल मूल्य से ज्यादा हो, यानी जिसका मूल्य, पूंजीपति ने मण्डी में अपनी सरी मुद्रा के द्वारा उत्पादन के जो साधन और जो श्रम-शक्ति खरीदी है, उनके कुल मूल्य से अधिक हो। पूंजीपति का उद्देश्य केवल कोई उपयोग-मूल्य पैदा करना नहीं, बल्कि कोई माल पैदा करना है। केवल उपयोग-मूल्य पैदा करना नहीं, बल्कि मूल्य पैदा करना है। केवल मूल्य नहीं, बल्कि प्रतिरिक्त मूल्य पैदा करना है। हमें यह याद रखना चाहिये कि अब हम मालों के उत्पावन की चर्चा कर रहे हैं और यहां तक हमने इस प्रक्रिया के केवल एक पहलू पर ही विचार किया है। जिस प्रकार माल उपयोग-मूल्य भी होते हैं और मूल्य भी, उसी प्रकार मालों को पैदा करने की प्रक्रिया अनिवार्य रूप से श्रम-प्रक्रिया होती है और साथ ही मूल्य पैदा करने की भी प्रक्रिया होती है।' जिस सौदे का जिक्र किया है, उससे इसमें कोई तबदीली नहीं पाती। पैदावार पर एकमात्र उस पूंजीपति का अधिकार होता है, जिसने कच्चा माल तथा जीवन के लिए मावश्यक वस्तुएं जुटायी हैं। और यह हस्तगतकरण के उस नियम का कठोर परिणाम होता है, जिसका मूल सिद्धान्त इसके ठीक उलट है, यानी जिसका मूल सिद्धान्त यह है कि हर मजदूर जो कुछ पैदा करता है, उसपर एकमात्र उस मजदूर का ही अधिकार होता है।" (उप० पु० , पृ० ५८1) जब मजदूरों को अपने श्रम की मजदूरी मिल जाती है . तब पूंजीपति न केवल पूंजी का" (पूंजी से उसका मतलब उत्पादन के साधनों से है), "बल्कि श्रम का भी स्वामी होता है। यदि जो कुछ मजदूरी के रूप में दिया जाता है, वह पूंजी की मद में शामिल कर लिया जाता है, जैसा कि पाम चलन है, तो पूंजी से अलग श्रम की बात करना कोरी बकवास है। पूंजी शब्द का जब इस रूप में प्रयोग किया जाता है, तब उसमें श्रम और पूंजी दोनों शामिल होते हैं।" (James Mill, "Elements of Pol. Econ.," &c. [जेम्स मिल, 'अर्थशास्त्र के तत्त्व', इत्यादि], 1821, पृ. ७०, ७१।) जैसा कि एक फुटनोट में पहले कहा जा चुका है, श्रम के इन दो पहलुओं के लिए अंग्रेजी भाषा में दो अलग-अलग शब्द हैं। साधारण श्रम-प्रक्रिया में, अर्थात् उपयोग-मूल्य पैदा करने की प्रक्रिया में, श्रम Work कहलाता है; मूल्य पैदा करने की प्रक्रिया में वह Labour कहलाता है, और यहां पर Labour का उसके विशुद्ध प्रार्षिक अर्थ में प्रयोग किया जाता है।-के. ए. - - . 14°
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