श्रम-प्रक्रिया और अतिरिक्त मूल्य पैदा करने की प्रक्रिया २०३ . र अपनी प्रकृति भी बदल गलता है। वह अपनी सुप्त शक्तियों का विकास करता है और उन्हें अपने पावेशानुसार काम करने के लिए विवश करता है। अब हन भन के उन प्राविम नैसर्गिक ब्यों की पर्चा नहीं कर रहे हैं, वो हमें महल पशु की याद दिलाते हैं। वह अवस्था, जिसमें मनुष्य अपनी मम-शक्ति को माल के रूप में बेचने के लिए मंग में लाता है, और वह, जिसमें मानव-श्रम प्रभी अपने पहले, नैसर्गिक रूप में ही पा,-इन दो अवस्थानों के बीच समय का इतना बड़ा व्यवधान है, जिसे नापना असम्भव है। हम श्रम के अन्तर्गत विशुद्ध मानव- भम को ही मानकर चल रहे हैं। मकड़ी गैक बुनकर की तरह ही बाला बुनती है, और शहर की मस्ती इस खूबी के साथ अपनी कोरियां बनाती है कि बहुत से वास्तुकार देखकर सिर नीचा कर लें। लेकिन अनाड़ी से अनाड़ी वास्तुकार और अच्छी से अच्छी शहद की माती में फ़ यह होता है कि वास्तुकार वास्तव में भवन बनाने के पहले उसे अपनी कल्पना में बनाता है। प्रत्येक सम-क्रिया के समाप्त होने पर एक ऐसा परिणाम हमारे सामने प्राता है, जो मन- प्रक्रिया के प्रारम्भ होने के समय मजदूर की कल्पना में पहले ही से मौजूद था। मजदूर निस सामग्री पर मेहनत करता है, वह केवल उसके रूप को ही नहीं बदलता है, बल्कि वह बुर अपना एक उद्देश्य भी पूरा करता है। यह उद्देश्य उसकी कार्य-प्रणाली के लिए नियम बन जाता है, और उसे अपनी इच्छा को इस उद्देश्य के प्राधीन बना देना पड़ता है। यह प्रवीनता केवल मणिक ही नहीं होती। शरीर की इनियों के परिश्रम के अतिरिक्त, मम प्रक्रिया के लिए यह भी जरूरी होता है कि काम के दौरान में मजदूर की इच्छा बराबर उसके उद्देश्य के अनुरूम रहे। इसका मतलब यह है कि मजदूर को बड़ी एकापता से काम करना होता है। काम की प्रकृति और उसे करने की प्रणाली मजदूर को जितना कम प्राकर्षित करती हैं और इस तरह उसकी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों को व्यवहार में पाने का मौका देने वाली चीन के रूप में मजदूर को उस काम में जितना ही कम मजा पाता है, उसे उतनी ही अधिक एकापता से काम करने के लिए विवश होना पड़ता है। श्रम-प्रक्रिया के प्राथमिक तत्त्व ये हैं: १) मनुष्य की व्यक्तिगत क्रियाशीलता, अर्थात् स्वयं काम; २) उस काम का विषय और ३) काम के प्राचार। अछूती हालत में परती (जिसमें पार्षिक दृष्टि से पानी भी शामिल है) मनुष्य को जीवन के लिए प्रावश्यक वस्तुएं या जीवन-निर्वाह के साधन बिल्कुल तैयार हालत में प्रदान करती है।' उसका अस्तित्व मनुष्य से स्वतंत्र होता है, और वह मानव-श्रम की सार्वत्रिक विषय-वस्तु होती है। वे तमाम चीजें, जिनको श्रम महब उनके वातावरण के साथ तात्कालिक सम्बंध से अलग कर देता है, बम की ऐसी विषय-वस्तुएं होती हैं, जिनको प्रकृति स्वयंस्फूर्त ढंग से मनुष्य को साँप देती है। वे मछलियां, जिन्हें हम पकड़ते हैं और उनके वातावरण-पानी-से अलग कर देते हैं। वह लकड़ी, बो हम अछूते जंगलों को काटकर हासिल करते हैं। वे खनिज पदार्थ, जो हम पृम्बी के गर्भ से निकालते हैं,-वे सब इसी तरह की चीजें हैं। दूसरी ओर, यदि मम की 1"प्रकृति की स्वयंस्फूर्त पैदावार चूंकि परिमाण में थोड़ी और मनुष्य के प्रभाव से बिल्कुल स्वतंत्र होती है, इसलिए ऐसा लगता है, जैसे प्रकृति ने इसे मनुष्य को उसी तरह सॉप दिया हो, जैसे किसी नवयुवक को किसी धन्धे में लगाने तथा पैसे कमाने के मार्ग पर लगाने के लिए एक छोटी सी रकम दे दी जाती है।" (James Steuart, “Principles of Polit. Econ." [जेम्स स्टीवर्ट, 'अर्थशास्त्र के सिद्धान्त'], Dublin का संस्करण, 1770, खण्ड १, पृ० ११६ ।)
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