१८८ पूंजीवादी उत्पादन . . सो अब यह बात साफ हो जाती है कि हमने पूंजी के प्रामाणिकप का विश्लेषण करते समय, यानी उस म का विश्लेवन करते समय, जिसके अन्तर्गत पूंची मानिक समाज के पार्षिक संगठन को निर्धारित करती है, उसके सबसे अधिक प्रचलित और मानो क्रियानूसी मो-सौदागरों की पूंजी और साहूकारों की पूंची-की भोर किस कारण से तनिक भी ध्यान नहीं दिया। परिपव मु-मा-मु', पानी महंगा बेचने के लिए खरीदना, सबसे अधिक स्पष्ट म में सच्चा सौदागरी पूंजी में दिखाई देता है। लेकिन यह पूरी गति परिचलन के क्षेत्र के भीतर ही होती है। किन्तु मुद्रा के पूंजी में बदलने को, या अतिरिक्त मूल्य के निर्माण को, चूंकि अकेले परिचलन का परिणाम नहीं समझा जा सकता, इसलिए ऐसा लग सकता है कि जब तक सम-मूल्यों का विनिमय होता है, तब तक सौदागरों की पूंची एक प्रसंभव बीच रहती है,' और इसलिए उसकी उत्पति केवल इसी बात से हो सकती है कि सौरागर पिता उत्पादकों और ग्राहक उत्पादकों के बीच में मुश्तजोरों की तरह दांग पड़ाकर दोनों के कान काट देता है। कलिन ने इसी पर्व में कहा है कि "पुरा सकती है और व्यापार प्राम तौर पर बोलेबाजी है।"" यदि सौदागरों की मुद्रा के पूंची में बदल जाने की उत्तावकों के घोला बाबाने के सिवा किसी और उंग से प्यास्या करनी हो, तो उसके लिए बीच के अनेक रनों का एक लम्बा कम पावश्यक होगा, जिसका इस समय, बब कि हम केवल मालों का साधारण परिचलन मानकर चल रहे हैं, सर्वधा प्रभाव है। सौदागरों की पूंजी के बारे में हमने जो कुछ कहा है, वह साहूकारों की पूंजी पर और भी अधिक लागू होता है। सौदागरों की पूंजी में दो छोर होते हैं: यह मुद्रा, बो मंग में गली जाती है, और वह बढ़ी हुई मुद्रा, बो मंग से निकाल ली जाती है। सौदागरों की पूंजी में ये दो छोर कम से कम एक खरीद और एक विक्री के बारा-या, दूसरे शब्दों में, परिचलन की गति के द्वारा-सम्बंधित होते हैं। परन्तु साहूकारों की पूंजी में म मु-मा- मु' बिना किसी मध्य बिन्नु के दो छोरों में, अर्थात् मु-मु' में परिणत हो जाता है, यानी मुद्रा का उससे अधिक मुद्रा के साथ विनिमय होता है। यह आप मुद्रा के स्वभाव से मेल नहीं साता, और इसलिए मालों के परिवलन के दृष्टिकोण से यह बिल्कुल समझ में नहीं पाता। अरस्तू ने इसीलिए कहा है कि "माटिस्टिक कि एक बोहरा विज्ञान है, जिसका एक भाग व्यापार में शामिल है और दूसरा पर्वतन्त्र में, और उसका दूसरा भाग चूंकि मावश्यक तवा प्रशंसनीय है, जबकि परिचलन पर प्राचारित होने के कारण पहले भाग की सही तौर पर . . . . "अपरिवर्तनशील सम-मूल्यों के राज में व्यापार करना असम्भव होगा।" (G. Opdyke, “A Treatise on Polit. Economy [जी• प्रोप्डाइक, 'पर्यशास्त्र पर एक अंप'], New York, 1851, पृ. ६६-६६) “वास्तविक मूल्य और विनिमय-मूल्य का भेद इस तथ्य पर भाधारित होता है कि किसी भी वस्तु का मूल्य, व्यापार में उसके बदले में जो तथाकषित सम-मूल्य मिलता है, उससे भिन्न होता है, यानी यह सम-मूल्य असल में सम-मूल्य नहीं होता।" (F. Engels, उप० पु., पृ० १६१) 'Benjamin Franklin, "Works" [बेंजामिन फ्रेंकलिन , 'रचनाएं'], Sparks का संस्करण, "Positions to be examined concerning national Wealth" ['राष्ट्रीय धन के विषय में जिन मतों पर विचार करना है'], पृ. ३७६ । .
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