पूंजीवादी उत्पादन . और हरेक के पास बह बस्तु होती है, जिसकी किसी दूसरे व्यक्ति को प्रावस्यकता होती है। मालों के उपयोग-मूल्यों में ये बो भौतिक भेर होते हैं, उनके अलावा मालों में केवल एक ही मेर पौर होता है। यह है उनके शारीरिक रूप तथा उस रूप का भेद, जिसमें वे विकी के फलस्वरूप बदल दिये जाते हैं, यानी यह मालों और मुद्रा का अन्तर होता है। इसलिए मालों के मालिकों में प्रापत में केवल एक यही भेद होता है कि उनमें से कुछ विशेता, या मालों के मालिक, और कुछ प्राहक, या मुद्रा के मालिक, होते है। अब मान लीजिये कि किसी अन्याय विशेष सुविधा के कारण विता अपने मालों को उनके मूल्य से अधिक में बेचने में सफल हो जाता है और जिसकी कीमत १०० है, उसे बह ११० में देव गलता है। इस सूरत में दाम में नामचार की १०% की वृद्धि हो जाती है। चुनाचे विस्ता १० का अतिरिक्त मूल्य अपनी बेब में गल लेता है। लेकिन बेचने के बाद वह प्राहक बन जाता है। प्रब मालों का एक तीसरा मालिक बेचने वाले के रूप में उसके पास पाता है, और इस म में उसको भी अपना माल १० प्रतिशत महंगे दामों में बेचने की सुविधा प्राप्त होता है। तो हमारे मित्र ने पिता के रूप मेंगो १० कमाये , उनको बह ग्राहक के रूप में फिर तो देता है। कुल मतीचा यह निकलता है कि मालों के तमाम मालिक एक दूसरे को अपना माल उसके मूल्य से १०० अधिक में बेच देते हैं। बात नहीं की यहीं पा जाती है, मानो उन सब ने अपना-अपना माल सही मूल्य पर बेचा हो। दामों में ऐसी सामान्य एवं नाममात्र की वृद्धि हो जाने का ठीक वही परिणाम होता है, जैसे मूल्यों को बनाय सोने के पवन के चांदी के पवन में अभिव्यक्त किया जाने लगा हो। यानी मालों के बराय नाम दाम बढ़ जायेंगे, लेकिन उनके मूल्यों के बीच जो वास्तविक सम्बंध है, वह ज्यों का त्यों रहेगा। अब उसकी उल्टी बात मानकर चलिए कि ग्राहक को मालों को उनके मूल्य से कम में खरीदने की सुविधा प्राप्त है। इस सूरत में यह याद रखना बरी नहीं है कि प्राहक भी अपनी बारी माने पर बेचने वाला बन जायेगा। यह तो प्राहक बनने के पहले ही विक्रेता चा। प्राहक के रूप में १० का नफा कमाने के पहले ही वह बेचते समय १० का नुकसान से पुका है। पानी बात वही रहती है, वो पहले पी। प्रतएव अतिरिक्त मूल्य के सृजन की और इसलिए मुद्रा के पूंजी में बदल जाने की न तो . 1"पैदावार के नामचार के मूल्य में वृद्धि हो जाने से... विक्रेतामों का धन नहीं बढ़ता... क्योंकि विक्रेताओं के रूप में उनको जो नफ़ा होता है, ठीक वही वे ग्राहकों के रूप में ra me stand ." ("The Essential Principles of the Wealth of Nations, etc." ["राष्ट्रों के धन के मूल सिद्धान्त, इत्यादि'], (London. 1797, पृ. ६६।) 8 "Si l'on est forcé de donner pour 181 ivres une quantité de telle produ- ction qui en valait 24, lorsqu'on employera ce même argent à acheter, on aura également pour 18 I. ce que l'on payait 24." ["afe TH 95 fare raet it for it न किसी पैदावार की ऐसी मावा देने के लिए मजबूर हो जाते है, जिसकी कीमत २४ लिन है, तो जब हम इस मुद्रा का बरीदने के लिए उपयोग करेंगे, तब हमारी बारी मायेगी पौर हमें १८ लिब के बदले में २४ लिन की कीमत की चीज मिल जायेगी।"] (Le Trosne, उप. पु., पृ. ८६७1) . .
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