१५८ पूंजीवादी उत्पादन संस्थानों और पतियों का विकास हो जाता है। मध्य युग में लियास शहर में virements (ऋण-कटौती) नामक ऐसी ही संस्था थी। 'क' का 'ब' पर जितना की है और 'ख' का 'ग' पर तवा 'ग' का 'क' पर, और इसी तरह अन्य लोगों का कर्ज,-इन सबों को केवल एक दूसरे के सामने रखा जाता था, ताकि सकारात्मक और नकारात्मक मात्रामों की भांति उन्हें मापस में काट दिया जाये। और इस प्रकार केवल एक राशि बकाया बच रहती है, जिसका भुगतान करना जरूरी होता है। किसी स्थान पर भुगतानों का जितना अधिक संकेत्रण होता है, भुगतानों की कुल रकम की तुलना में यह बकाया राशि उतनी ही कम होती है और परिचलन में शामिल भुगतान के साधनों की मात्रा भी उतनी ही कम होती है। भुगतान के साधन के रूप में मुद्रा जो काम करती है, उसमें एक प्रत्यक्ष विरोष निहित होता है, यानी उस विरोध में कोई terminus medius नहीं होता। जिस हद तक कि अलग-अलग भुगतान एकभूसरे को मंसूज कर देते हैं, उस हब तक मुद्रा लेखा-मुद्रा के रूप में- मूल्य की माप के रूप में केवल भावगत ढंग से काम करती है। जिस हब तक कि सचमुच भुगतान करने होते हैं, उस हब तक मुद्रा चालू माध्यम की तरह या वस्तुओं के पादान- प्रदान के मात्र एक मणिक अभिकर्ता की तरह नहीं, बल्कि उस हब तक वह सामाजिक श्रम के वैयक्तिक अवतार, विनिमय-मूल्य के अस्तित्व के स्वतंत्र रूप और सार्वत्रिक माल की तरह काम करती है। यह विरोष प्रौद्योगिक तथा व्यापारिक संकटों की उन अवस्थानों में खुलकर सामने माता है, जो मुद्रा का संकट कहलाती हैं। ऐसा संकट केवल वहीं पर पाता है, जहां भुगतानों की बराबर लम्बी सिंचती चली जाने वाली श्रृंखला और भुगतानों को निपटाने की एक बनावटी व्यवस्था का पूर्ण विकास हो गया है। जब कभी इस डांचे में कोई सामान्य एवं व्यापक गड़बड़ी पैदा हो जाती है, - उसका कारण चाहे कुछ भी हो,-तब मुद्रा यकायक और तत्काल लेखा- मुद्रा के मात्र भावगत रूप को त्यागकर ठोस नकवी बन जाती है। अब घटिया माल उसका स्थान नहीं ले सकते। मालों का उपयोग-मूल्य मूल्यहीन हो जाता है, और उनका मूल्य स्वयं अपने स्वतंत्र म का सामना होने पर गायब हो जाता है। संकट के कुछ ही पहले तक पूंजीपति मदोन्मत कर देने वाली समृद्धि से उत्पन्न प्रात्म-निर्भरता के गर्व के साथ यह घोषणा करता है कि मुद्रा एक वृषा का भ्रम है, केवल माल ही मुद्रा होते हैं। परन्तु अब हर तरफ़ यह शोर मचता है कि मुद्रा ही एकमात्र माल है। जिस प्रकार हिरन ताजे पानी के लिए तड़पता है, उसी प्रकार अब पूंजीपति की प्रात्मा मुद्रा के लिए, उस एकमात्र धन के लिए, तड़पती है। संकट पैदा . 1 पाठ में जिस मुद्रा-संकट का जिक्र किया गया है, वह प्रत्येक संकट की एक अवस्था होती है और उसे उस खास ढंग के संकट से बिल्कुल अलग करके देखना चाहिए, जो मुद्रा- संकट ही कहलाता है, लेकिन जो एक स्वतंत्र घटना के रूप में अलग से भी उत्पन्न हो सकता है और जिसका उद्योग तथा व्यापार पर केवल अप्रत्यक्ष ढंग से प्रभाव पड़ता है। इन संकटों की धुरी मुद्रा-रूपी पूंजी होती है, और चुनांचे उनके प्रत्यक्ष प्रभाव का क्षेत्र इस पूंजी का क्षेत्र, अर्थात् बैंक, स्टाक एक्सचेंज और वित्त-प्रबंध होते है। १" उधार की प्रणाली को त्यागकर सब का यकायक फिर ठोस नकदी की प्रणाली पर लौट भाना -यह क्रिया व्यावहारिक बदहवासी तो फैलाती ही है, ऊपर से सैदान्तिक बदहवासी भी पैदा कर देती है; और वे तमाम व्यक्ति, जिनके जरिये परिचलन सम्पन्न होता है, उस दुर्गम रहस्य को देखकर परस्पर कांपने लगते है, जिसमें उनके अपने प्रार्षिक सम्बंध उलझ गये हैं।
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