मुद्रा, या मालों का परिचलन १५३ के बाल पकड़कर उसे पृथ्वी के गर्भ से जींचकर निकालने की कोशिश की पी', सोने को अपना पवित्र प्रेल (Holy Grall) समझता है और स्वयं अपने जीवन के मूल सिद्धान्त के कान्तिमय मूर्त रूम की तरह उसका अभिनन्दन करता है। माल एक उपयोग मूल्य की हैसियत से किसी बात प्रावश्यकता की पूर्ति करता है और भौतिक धन का एक विशिष्ट तत्त्व होता है। किन्तु किसी माल का मूल्य इस बात की माप होता है कि उसमें भौतिक पन के अन्य सब तत्वों को अपनी पोर माकर्षित करने की कितनी शक्ति है, और इसलिए वह अपने मालिक के सामाजिक पन की माप होता है। मालों के बर्वर मालिक की दृष्टि में, और यहां तक कि पश्चिमी योरप के किसान की दृष्टि में भी, मूल्प-रूम ही मूल्य होता है, और इसलिए जब उसके सोने और चांदी के अपसंचित कोष में बढ़ती होती है, तो वह समानता है कि मूल्य में बढ़ती हुई है। यह सच है कि मुद्रा का मूल्य बदलता रहता है। वह कभी तो स्वयं उसके अपने मूल्य के परिवर्तन का परिणाम होता है और कभी मालों के मूल्य में होने वाले परिवर्तन का। किन्तु इससे एक पोर तो इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि २०० प्रॉस सोने में अब भी १०० प्रॉस से ज्यादा मूल्य रहता है, और दूसरी पोर इस वस्तु के गेस पात्वीय रूप के अन्य सब मालों का सार्वत्रिक सम-मूल्य रूप और समस्त मानव-श्रम का तात्कालिक सामाजिक अवतार बने रहने में भी कोई बाधा नहीं पड़ती। अपसंचय करने की इच्छा की प्रकृति ही ऐसी है कि उसकी कभी तुष्टि नहीं होती। यदि मुद्रा के गुणात्मक पहलू की ओर ध्यान दिया जाये या उसपर प्रौपचारिक स से विचार किया जाये, तो मुद्रा का प्रभाव असीम होता है, अर्थात् वह भौतिक धन का सार्वत्रिक प्रतिनिधि होती है, क्योंकि उसे सीधे-सीधे किसी भी अन्य माल में बदला जा सकता है। किन्तु इसके साथ ही मुद्रा की हर वास्तविक रकम मात्रा में सीमित होती है, और इसलिए क्य-साधन के रूप में उसका प्रभाव भी सीमित होता है। मुद्रा की परिमाणात्मक सीमामों और गुणात्मक सीमाहीनता का यह विरोष अपसंचय करने वाले को लगातार चाबुक लगा-सगाकर उससे सिसाइफस (Sisyphus) के समान निरन्तर संचय का मम कराता है। उसकी वही हालत होती है, जो किसी विजेता की होती है, जो हर नये देश को जीतने पर उसके रूम में केवल एक नयी सीमा देखता है। सोने को मुद्रा के रूप में रोक रखने और उसे अपसंचित धन की शकल देने के लिए बकरी है कि उसे परिचलन में भाग न लेने दिया जाये, या उसे भोग के साधन में रूपान्तरित न होने दिया जाये । इसलिए, अपसंचय करने वाला विषय-सुल की इच्छात्रों का अपने सुवर्ग-रेव के सामने बलिदान कर देता है। वह सचमुच संन्यास-धर्म का पालन करता है। दूसरी मोर, उसने मालों के म में परिचलन में जितना गला है, उससे अधिक वह उसमें से बाहर नहीं निकाल सकता। बह जितना स्यादा पैदा करता है, उतना ही प्यावा बेच पाता है। अतः कोर परिश्रम करना, . ["संसार में जितनी बुराइयां हैं, उनमें सबसे बड़ी बुराई मुद्रा है। मुद्रा ही है, जो शहरों को वीरान कर देती है और लोगों से घरबार छुड़ा देती है। वह नैसर्गिक पवित्रता को विकृत पौर भ्रष्ट कर देती है और मनुष्य को बेईमानी की पादत सिखाती है।"] (सोफ़ोक्लीज, 'ऐष्टीगीन'1) 1 «Encorons this theoretias dvány is soov podov s mis adron tó Mobteva ("लाभ का मोह स्वयं प्लेटो को पृथ्वी के गर्भ से वींचकर बाहर निकाल लेना चाहता था") (Athenaeux, “Deipnosophis tarum libri quindecim")
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