तीसरा अध्याय मुद्रा, या मालों का परिचलन अनुभाग १ - मूल्यों की माप . इस रचना में मैं सरलता की दृष्टि से सदा यह मानकर चलूंगा कि मुद्रा का काम करने वाला माल सोना है। मुद्रा का पहला मुख्य कार्य यह है कि वह मालों को उनके मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए सामग्री प्रदान करे, या यह कि उनके मूल्यों को बराबर अभिषान के ऐसे परिमाणों के रूप में व्यक्त करे, मो गुणात्मक दृष्टि से समान और परिमाणात्मक दृष्टि से तुलनीय हों। इस प्रकार मुद्रा मूल्य की सार्वत्रिक माप का काम करती है। सिर्फ यह काम करने के कारण ही सोना, जो par excellence (सबसे उत्तम) सम-मूल्य माल होता है, मुद्रा बन जाता है। मुद्रा मालों को एक ही मापदण्ड से मापने के योग्य बनाती हो, ऐसा नहीं है। बात मेक इसकी उल्टी है। मूल्यों के रूप में तमाम माल चूंकि मूर्त मानव-श्रम होते हैं और इसलिए उनको चूंकि एक ही मापवण से मापा जा सकता है, यही कारण है कि उनके मूल्यों को एक ही खास माल के द्वारा मापना सम्भव होता है और इस खास माल को उनके मूल्यों को समान माप में-पति, मुद्रा में-बबला जा सकता है। मूल्य की माप के तौर पर मुद्रा वह इन्द्रियगम्य रूप होती है, जो मालों में निहित मूल्य की माप को-यानी श्रम-काल को-लाजिमी तौर पर धारण करना पड़ता है। 1 यह सवाल कि मुद्रा सीधे श्रम-काल का प्रतिनिधित्व क्यों नहीं करती, जिससे कि, मिसाल के लिए, काग़ज़ का एक टुकड़ा 'घ' घण्टे के श्रम का प्रतिनिधित्व कर पाये,- यह सवाल, यदि उसकी तह तक पहुंचा जाये, तो असल में बस वही सवाल बन जाता है कि यदि मालों का उत्पादन पहले से ही मान लिया जाता है, तो श्रम से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं को मालों का रूप क्यों धारण करना पड़ता है ? इसका कारण स्पष्ट है, क्योंकि श्रम से पैदा होने वाली वस्तुमों के मालों का रूप धारण करने का यह मतलब भी होता है कि वे मालों तथा मुद्रा में बंट जाती हैं। या इसी तरह का एक और सवाल यह है कि निजी श्रम को-यानी व्यक्तियों के स्वार्थ में किये गये श्रम को-उसका उल्टा, तात्कालिक सामाजिक श्रम क्यों नहीं समझा जा सकता? अन्यत्र मैने मालों के उत्पादन पर पाधारित समाज में "श्रम-मुद्रा" के कल्पनावादी विचार का भरपूर विश्लेषण किया है (देखिये "Zur Kritik der Politischen Oekono-
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