विनिमय १०७ . . बदला जा सकता है, इस बात से यह दूसरा भ्रम पैदा होता है कि मुद्रा खुब भी महब एक प्रतीक ही है। फिर भी इस भ्रम के पीछे यह अनुमान छिपा हुमा था कि किसी भी वस्तु का मुद्रा-म उस वस्तु का अविच्छिन्न भाग नहीं होता, बल्कि केवल वह रूप भर होता है, जिसमें कुछ सामाजिक सम्बंध अभिव्यक्त होते हैं। इस पर्व में तो प्रत्येक माल प्रतीक है, क्योंकि जिस हद तक वह मूल्य होता है, उस हद तक वह अपने ऊपर खर्च किये गये मानव-श्रम का भौतिक पावरण मात्र होता है। लेकिन जहां यह कहा जाता है कि उत्पावन को एक निश्चित प्रणाली ,
एक काल्पनिक मूल्य प्राप्त हो गया।" दूसरी ओर, ला ने लिखा है : “किसी एक ही चीज को अलग-अलग कौमें एक काल्पनिक मूल्य कैसे दे सकती थीं... या यह काल्पनिक मूल्य अपने को कैसे कायम रख सकता था?" लेकिन नीचे दिये गये शब्दों से जाहिर होता है कि इस मामले को वह खुद कितना कम समझ पाये थे: “चांदी का विनिमय उसके उपयोग- मूल्य के अनुपात में होता था, यानी उसका विनिमय उसके वास्तविक मूल्य के अनुपात में होता था। जब वह मुद्रा के रूप में अपना ली गयी, तो उसे एक अतिरिक्त मूल्य (une valeur additionnelle) 99167 ET TATT I" (Jean Law: "Considérations sur le nume- raire et le commerce", "Economistes Financiers du XVIII siècle" E. Daire संस्करण में, पृ० ४७०।) 1 "L' argent en (des denrées) est le signe" [" मुद्रा उनका (मालों का) प्रतीक Elita ") (V. de Forbonnais: “Elements du Commerce”, RICHT, Leyde, 1766, ग्रंथ २, पृ० १४३ ) । "Comme signe il est attire par les denrées" ["प्रतीक के रूप में उसे माल अपनी ओर आकर्षित करते हैं "] ( उप. पु. पृ०, १५५) । “L'argent est un signe diune chose et la represente" [" मुद्रा किसी वस्तु का प्रतीक होती है और उसका प्रतिनिधित्व करती है"] (Montesquieu, des Loix”. Oeuvres, London, 1767, ग्रंथ २, पृ. २)। "Largent nest pas simple signe, car il est lui-meme Richesse; il ne représente pas les valeurs, il les équivaut" [" DET &qer setta नहीं है, कारण कि वह खुद दौलत होती है। वह मूल्यों का प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि उनका सम-मूल्य होती है "] (Le Trosne, उप० पु., पृ. ९१०)। “मूल्य के विचार के सिलसिले में मूल्यवान वस्तु केवल एक प्रतीक के रूप में सामने आती है; वस्तु स्वयं जो कुछ होती है, उसका कोई महत्त्व नहीं होता, बल्कि वस्तु की जो कीमत होती है, महत्त्व उसका होता है" (Hegel, उप० पु०, पृ० १००)। अर्थशास्त्रियों से बहुत पहले वकीलों ने इस विचार का श्रीगणेश किया था कि मुद्रा एक प्रतीक मान होती है और बहुमूल्य धातुओं का मूल्य केवल काल्पनिक होता है। उन्होंने समूचे मध्य युग में राजामों की चाटुकारितापूर्ण सेवकाई और राजाओं के सिक्कों में खोट मिलाने के अधिकार का समर्थन करने के लिए ऐसा किया। इसके लिये उन्होंने रोमन साम्राज्य की परम्परामों तथा मुद्रा के सम्बंध में पांडेक्ट्स नामक कानून के अंथ में पायी जाने वाली धारणामों की दुहाई दी। इन वकीलों के योग्य शिष्य बलुई के फ़िलिप ने १३४६ के एक प्रादेश में कहा है : "Qu'aucun puisse ni doive faire doute, que à nous et à notre majesté royale n'appartiennent seulement ... le mestier, le fait, l'état, la provision et toute l'ordonnance des monnaies, de donner tel cours, et pour tel prix comme il nous ,