विनिमय १०३ - . ejus" (Apocalypse)("इनका एक सा विमान होता है और ये सब अपनी शक्ति और अपना अधिकार हैवान को सौंप देंगे। और सिवाय उस भावमी के, जिसके ऊपर हैवान का निशान होगा या निसके पास उसका नाम या उसके नाम का हिन्दसा होगा, और कोई न तो खरीद पायेगा और न बेच पायेगा। प्रपोकलिप्स, अन्याय १७, २३ और अध्याय १३, १७)। मुद्रा एक ऐसा स्फटिक है, जिसका विनिमयों को किया के दौरान में अनिवार्य रूप से निर्माण हो जाता है और जिसके द्वारा श्रमसे पैदा होने वाली अलग-अलग वस्तुओं का व्यावहारिक रूप में एक दूसरे के साथ समीकरण किया जाता है और इस तरह उनको व्यवहार में मालों में बदल दिया जाता है। मालों में उपयोग-मूल्य और मूल्य का जो व्यतिरेक छिपा रहता है, उसे विनिमयों की ऐतिहासिक प्रगति और उनका विस्तार विकसित करता है। व्यापारिक भावान-प्रदान के लिये इस व्यतिरेक को चूंकि बाह्य रूप से अभिव्यक्त करना जरूरी होता है, इसलिये मूल्य के एक स्वतंत्र रूप की स्थापना की पावश्यकता बढ़ती जाती है, और यह किया उस वक्त तक जारी रहती है, जब तक कि मालों के मालों और मुद्रा में बंट जाने के फलस्वरूप यह मावश्यकता सदा-सदा के लिये पूरी नहीं हो जाती। अतएव, जिस गति से भम से उत्पन्न होने वाली वस्तुएं मालों में परिणत होती हैं, उसी गति से एक जास माल मुद्रा में भी बदलता जाता है। श्रम से पैदा होने वाली वस्तुओं का सीषा विनिमय एक दृष्टि से तो मूल्य की सापेक्ष अभिव्यंजना का प्राथमिक रूप प्राप्त कर लेता है, लेकिन एक दूसरी दृष्टि से ऐसा नहीं करता। यह प्राथमिक रूप है: 'क' माल का 'प' परिमाण ='ख' माल का 'फ' परिमाण । सीपी अबला-बदली का म यह होता है : 'क' उपयोग मूल्य का प' परिमाण ='ख' उपयोग- मूल्य का 'फ' परिमाण। इस अवस्था में 'क' और 'ख' नामक वस्तुएं मनी माल नहीं बन पायी है, बल्कि ये केवल अदला-बदली के जरिये ही माल बनती है। कोई भी उपयोगी वस्तु विनिमय-मूल्य प्राप्त करने की पोर उस समय पहला कदम उठाती है, जब वह अपने मालिक के लिये उपयोग-मूल्य नहीं रह जाती, और वह उस समय होता है, जब वह अपने मालिक की तात्कालिक मावश्यकताओं के लिये बरी किसी वस्तु का फ्राजिल भाग बनती है। वस्तुओं का मनुष्य से अलग अस्तित्व होता है, और इसलिये मनुष्य उनको हस्तांतरित कर सकता है। हस्तांतरण की यह क्रिया दोनों तरफ से हो, इसके लिये केवल यह बरी है कि लोग एक मौन 1 इससे हम निम्न-पूंजीवादी समाजवाद की चतुराई का कुछ अनुमान लगा सकते हैं, जो मालों के उत्पादन को तो ज्यों का त्यों कायम रखना चाहता है, पर मुद्रा और मालों के "विरोध" को मिटा देना चाहता है, और चूंकि मुद्रा का अस्तित्व केवल इस विरोध के कारण ही होता है, इसलिए वह खुद मुद्रा को ही मिटा देना चाहता है। तब तो हम पोप को मिटाकर कैथोलिक सम्प्रदाय को कायम रखने की चेष्टा भी कर सकते हैं। इस विषय के बारे में और जानने के लिये देखिये मेरी रचना "Zur Kritik der Politischen Oekonomic" ('अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास'), पृ०६१ और उसके प्रागे के पृष्ठ । जब तक कि दो अलग-अलग उपयोग-मूल्यों का विनिमय होने के बजाय किसी एक वस्तु के सम-मूल्य के रूप में नाना प्रकार की अनेक वस्तुएं दी जाती है, तब तक पैदावार की सीधी अदला-बदली भी अपनी बाल्यावस्था के प्रथम चरण में ही रहती है। जंगली लोगों में अक्सर ऐसा होता है।
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