व्यक्त करता है: "जब हमारे हाथ राज्य-सत्ता आ जायगी तब हम छोटे किसानों को ( मुआवजे देकर या बिना दिये ) बलपूर्वक अपहरण करने का सोचेंगे भी नहीं जैसा कि बड़े ज़मींदारों के संबंध में हमें करना पड़ेगा। छोटे किसानों में हमारा सबसे पहला काम यह होगा कि बलपूर्वक नहीं वरन् उदाहरणों से और सामाजिक सहायता देकर उनके निजी उत्पादन और निजी स्वामित्व को सहकारी उत्पादन और सहकारी स्वामित्व में परिवर्तित कर दें। उस समय छोटे किसानों को इस परिवर्तन के लाभ दिखाने के लिए हमारे पास काफ़ी साधन होंगे और इन लाभों को हमें उन्हें अभी से समझाना चाहिए।" ( एंगेल्स : 'पश्चिम में कृषि की समस्या', पृष्ठ १७, अलेक्सेयेवा द्वारा सम्पादित , रूसी अनुवाद में ग़लतियां हैं। सबसे पहले «Neue Zetb¹² में प्रकाशित )
सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष की कार्यनीति
१८४४-१८४५ में ही यह पता लगाकर कि पहले के पदार्थवाद का एक मुख्य दोष यह था कि उसने प्रत्यक्ष क्रान्तिकारी कार्यवाही की परिस्थितियों और महत्व को न समझा था, मार्क्स ने जीवन भर अपने सैद्धान्तिक कार्यों के साथ सर्वहारा वर्ग-संघर्ष की कार्यनीति की समस्याओं की ओर लगातार ध्यान दिया। मार्क्स के सभी ग्रंथों में, विशेषकर १९१३ में प्रकाशित एंगेल्स से उनके पत्र-व्यवहार की चार जिल्दों में, इस विषय पर बहुत बड़ी सामग्री उपलब्ध है। यह सामग्री एकत्रित और व्यवस्थित होने को है; उसका अध्ययन और जांच करनी है। इसी कारण से इस बात पर जोर देना आवश्यक है कि मार्क्स ने इस पहलू से रहित पदार्थवाद को सही अर्थ में अपूर्ण, एकांगी और निर्जीव समझा था। तो भी, हमें इस संबंध में कुछ बहुत ही साधारण और संक्षिप्त बातों से संतोष करना होगा। अपने पदार्थवादी-द्वंद्ववादी दृष्टिकोण के साधारण सिद्धान्तों के नितान्त अनुकूल ही मार्क्स ने सर्वहारा कार्यनीति के मूल कर्तव्य की
व्याख्या की थी। किसी भी समाज के सभी वर्गों के निरपवाद रूप से
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