पूंजीपतियों को डर लगता है क्योंकि यह एक दूसरे एकाधिकार को भी निकट से "स्पर्श" करती है, जो आजकल विशेष रूप से महत्वपूर्ण और "कोमल" है - साधारण रूप से उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार। ( एंगेल्स के नाम अपने २ अगस्त १८६२ के पत्र में मार्क्स ने पूंजी पर मुनाफ़े की औसत दर और निरपेक्ष भूमि-कर के सिद्धान्त की बहुत ही सरल , सुस्पष्ट और संक्षिप्त व्याख्या की है। देखिये ‘पत्र-व्यवहार', खंड ३, पृष्ठ ७७-८१ ; साथ ही मार्क्स का ६ अगस्त १८६२ का पत्र, वहीं, पृष्ठ ८६-८७ । ) भूमि-कर के इतिहास के सम्बन्ध में मार्क्स के विश्लेषण की ओर ध्यान देना आवश्यक है। इस संबंध में यह बताना भी बड़े महत्व का है कि श्रम-कर (जब किसान ज़मींदार की जमीन पर काम करके अतिरिक्त पैदावार करता है) वस्तु या धान्य-कर का रूप किस तरह लेता है (किसान अपनी भूमि पर अतिरिक्त पैदावार करके उसे “आर्थिक से इतर नियंत्रण" द्वारा बाध्य होकर ज़मींदार को सौंप देता है )। उसके बाद यह वस्तु-कर मुद्रा-कर में परिवर्तित होता है ( वही वस्तु-कर जो माल उत्पादन के विकास के कारण पैदावार के रूप में जो पुराने रूस का कर था, उसी की कीमत मुद्रा में निश्चित कर दी जाती है )। अन्त में वह पूंजीवादी कर में परिवर्तित होता है जब किसान की जगह वह पूंजीपति आ जाता है जो पैसे पर मजूरी करनेवालों की सहायता से खेती करता है। “पूंजीवादी भूमि-कर की उत्पत्ति" के विश्लेषण के साथ-साथ कृषि में पूंजीवाद के विकास के संबंध में मार्क्स ने कुछ बड़े मार्के के विचार प्रकट किये थे, उनपर भी ध्यान देना चाहिए। रूस जैसे पिछड़े हुए देशों पर वे विशेष रूप से लागू होते हैं। “अपने को मजूरी पर उठा देनेवाले , दिन में काम करनेवाले , संपत्तिहीन मजदूरों का वर्ग बनने के साथ साथ ही धान्य रूप में कर मुद्रा-कर में बदलता है, बल्कि पहले से उसकी आशा होने लगती है। उनके इस अभ्युदय-काल में, जब यह वर्ग जहां-तहां अनियमित ढंग से प्रकट होता है, तो यह प्रथा भी अवश्य चल पड़ती है कि धान्य या मुद्रा के रूप में कर देने वाले धनी किसान अपने लाभ के लिए खेतिहर मजूरों का शोषण करते हैं, जैसे कि सामन्त-युग में धनी कम्मी अपने लाभ के लिए कम्मियों से काम लेते थे। इस प्रकार
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