पूंजी की जो मात्रा लगायी जाती है, उसमें अन्तर होने से यह कैसे उत्पन्न होता है, मार्क्स ने पूरी तरह रिकार्डो की भूल को प्रकट कर दिया है जिसका विचार था कि भेदकारी भूमि-कर तभी मिलता है जब अच्छी से बुरी धरती की ओर क्रमशः संक्रमण होता । ('अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त' भी देखिये जिसमें रोडबर्टस के मत की समालोचना विशेष ध्यान देने योग्य है।) इसके विपरीत कृषि-विद्या में उन्नति होने से , नगरों की वृद्धि आदि कारणों से प्रतिकूल संक्रमण हो सकते हैं, धरती की एक श्रेणी बदल कर दूसरी हो सकती है। "धरती की नित-न्यून उर्वरता का नियम" जो दुष्टता से प्रकृति पर पूंजीवाद के दोषों , संकीर्णता और असंगति का दोषारोपण करता है, भारी भूल है। इसके सिवा सभी उद्योग-धंधों और साधारण रूप से राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में मुनाफ़े की समानता पहले ही प्रतियोगिता करने की स्वाधीनता को, एक धंधे से दूसरे धंधे में पूंजी की स्वतंत्र गति को मान लेती है। परन्तु भूमि पर निजी स्वामित्व एकाधिकार को जन्म देकर, इस स्वतंत्र गति में बाधक होता है। इस एकाधिकार के कारण जहां पूंजी की निम्न आर्गेनिक बनावट होती है और फलतः अलग-अलग मुनाफ़े की ऊंची दर मिल सकती है, वहां खेती की पैदावार में मुनाफ़े की दर निद्वंद्व रूप से बराबर नहीं की जा सकती। अपने हाथ में एकाधिकार रखने से जमींदार अपनी पैदावार की कीमत औसत से ऊंची रख सकता है और यह एकाधिकार से निश्चित होने वाली क़ीमत निरपेक्ष भूमि-कर का उद्गम है। जब तक पूंजीवाद है, तब तक भेदकारी भूमि-कर का अन्त नहीं हो सकता। लेकिन निरपेक्ष भूमि-कर का तो पूंजीवाद के रहते हुए भी अन्त किया जा सकता है ; उदाहरण के लिए भूमि के राष्ट्रीयकरण से, भूमि को राष्ट्र की सम्पत्ति बनाकर। भूमि पर राष्ट्र का अधिकार होने से निजी ज़मींदारों के एकाधिकार का अन्त हो जायेगा। इसका फल यह होगा कि कृषि में भी अधिक संगतरूप से और अधिक पूर्णता से मुक्त प्रतियोगिता चल सकेगी। इसीलिए, जैसा कि मार्क्स ने कहा है, इतिहास में आमूल-परिवर्तनवादी पूंजीपति बार-बार इस प्रगतिशील पूंजीवादी मांग को लेकर आगे आये हैं कि भूमि पर राष्ट्र का अधिकार हो । लेकिन इससे अधिकांश
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