होती है - क्योंकि सारे मालों के मूल्यों का जोड़ क़ीमतों के जोड़ से मेल खाता है। फिर भी मूल्य (जो सामाजिक होता है ) और क़ीमत (जो अलग-अलग होती है) का परस्पर सामंजस्य सीधे साधारण ढंग से नहीं होता वरन् उसका क्रम बहुत ही टेढ़ा-मेढ़ा होता है। इसलिए ऐसे समाज में जहां माल के पैदा करने वाले लोग अलग-अलग हों, और जो केवल बाजार के ही माध्यम से एक-दूसरे के साथ जुड़े हों, यह स्वाभाविक है कि नियम एक औसत, आम और सामूहिक नियम के रूप में प्रकट हो, जिसमें कभी इधर और कभी उधर होनेवाली पथ-विच्युति एक दूसरे की कमी को पूरा करे।
श्रम की उत्पादकता में बढ़ती का अर्थ है अस्थिर पूंजी के मुकाबले स्थिर पूंजी की और भी तेज़ बढ़ती। अतिरिक्त मूल्य का केवल संबंध अस्थिर पूंजी से ही होता है, इसलिए यह स्पष्ट है कि मुनाफ़े की दर में ( अतिरिक्त मूल्य तथा सम्पूर्ण पूंजी, न पूंजी के एक अस्थिर भाग के ही अनुपात में ) गिरने की प्रवृत्ति होती है। मार्क्स ने इस प्रवृति और इसे छिपाने अथवा निष्फल करनेवाली कुछेक परिस्थितियों का विस्तृत विश्लेषण किया है। 'पूंजी' के जिस अत्यंत रोचक तीसरे भाग में महाजनी पूंजी , व्यापारी पूंजी और मुद्रा पूंजी की विवेचना की गई है, उसका यहां पर विवरण न देकर मैं उसके सबसे महत्वपूर्ण भाग भूमि-कर के सिद्धान्त को लूंगा। ज़मीन नाकाफ़ी होने से और पूंजीवादी देशों में सारी ज़मीन पर अलग-अलग मालिकों का निजी स्वामित्व होने से, खेती की पैदावार की उत्पादन-क़ीमत उत्पादन की लागत से निश्चित होती है। परन्तु इस उत्पादन की लागत का हिसाब औसत दर्जे की जमीन को ध्यान में रखकर नहीं लगाया जाता , उसका हिसाब माल को बाज़ार ले आने की औसत परिस्थितियों को ध्यान में रखकर नहीं लगाया जाता , वरन् सबसे ख़राब धरती और सबसे अधम परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह हिसाब लगाया जाता है। इस क़ीमत में और अच्छी ज़मीन ( या अच्छी परिस्थितियों) के उत्पादन की कीमत में जो अन्तर होता है, वह भेदकारी भूमि-कर कहलाता है। उसका विस्तृत विश्लेषण करते हुए और यह दिखाते हुए कि खेतों की उर्वरता में अन्तर होने से और धरती पर
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