वर्तमान काल में उन्नति और विकास की अवधारणा प्रायः पूर्ण रूप से सामाजिक चेतना में घुस गयी है। परन्तु यह काम और तरह से हुआ है, हेगेल के दर्शन द्वारा नहीं। परन्तु हेगेल के दर्शन के आधार पर मार्क्स और एंगेल्स ने उसी कल्पना की जो व्याख्या की है, वह प्रचलित विकास- सिद्धान्त से अधिक व्यापक और गम्भीर है। विकास-क्रम में मालूम होता है कि पहले की मंज़िलें फिर लौट कर आ रही हैं परन्तु ये मंज़िलें एक दूसरे ढंग से, एक और ऊंचे स्तर पर आती हैं (“ निषेध का निषेध"); यह विकास सीधी रेखा में न होकर शंखतुल्य आवर्तपूर्ण होता है ; - यह विकास छलांग , विध्वंस और क्रान्ति द्वारा ही होता है ; - “क्रमविकास में खंड"; मात्रा का गुण में परिवर्तन होता है ; - किसी वस्तु , घटनाक्रम या समाज पर घात-प्रतिघात करनेवाली विभिन्न शक्तियों अथवा प्रवृत्तियों के अन्तर्विरोध तथा टकराव से विकास के लिए आन्तरिक प्रेरणा मिलती है ; प्रत्येक घटनाक्रम के सभी अंगों में परस्पर निर्भरता , और इस प्रकार निकटतम और अटूट सम्बद्धता होती है (इतिहास नित नये अंगों को प्रकट करता जाता है); इस सम्बद्धता से एकरूप , नियमचालित तथा विश्वव्यापी गतिक्रम संभव होता है-विकास के सिद्धान्त के साधारण की तुलना में) अधिक सम्पन्न द्वंद्ववाद की यही कुछ विशेषताएं हैं। (एंगेल्स के नाम मार्क्स का ८ जनवरी १८६८ का वह पत्र देखिये जिसमें वह स्टाइन के उस "निर्जीव त्रयवाद" की खिल्ली उड़ाते हैं, जिसे पदार्थवादी द्वंद्ववाद समझना मूर्खता है)।
इतिहास की पदार्थवादी धारणआ
पुराने पदार्थवाद की असंगति , अपूर्णता और एकांगीपन का अनुभव करके मार्क्स को निश्चय हो गया कि “समाज-विज्ञान तथा उसके पदार्थवादी आधार में सामंजस्य स्थापित करना और उस आधार पर उसका पुनर्निर्माण करना" आवश्यक है। यदि साधारण रूप से पदार्थवाद के अनुसार चेतना अस्तित्व का परिणाम है, न कि उसके विपरीत , तो मनुष्य जाति के सामाजिक जीवन पर पदार्थवाद को लागू करने से यह भी स्पष्ट हो जाना
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