आत्मा और प्रकृति के सम्बन्ध पर है ... कि इनमें मूल कौन है , आत्मा या प्रकृति ... दार्शनिकों ने इसके जो उत्तर दिये , उनके अनुसार वे दो बड़े दलों में विभक्त हो गये। जो प्रकृति की अपेक्षा आत्मा को मूल स्वीकार करते थे और इसलिए अन्ततोगत्वा किसी न किसी रूप में संसार की सृष्टि को भी मानते थे... वे आदर्शवादी दल में आ गये। दूसरे दार्शनिक जो प्रकृति को ही मूल स्वीकार करते थे, वे पदार्थवाद की विभिन्न धाराओं में आ गये।" आदर्शवाद और पदार्थवाद की धारणाओं का और किसी तरह से (दार्शनिक अर्थ में) प्रयोग केवल भ्रम उत्पन्न करता है। मार्क्स ने न केवल आदर्शवाद को ही (जो किसी न किसी रूप में धर्म से बंधा ही रहता है) निश्चित रूप से रद्द किया, वरन् ह्यूम और कान्ट के मतों को भी अस्वीकार किया जो आजकल विशेष रूप से प्रचलित हैं- विभिन्न रूपों में अज्ञेयवाद, समीक्षावाद और निरीक्षणवाद । उनका कहना था कि यह दर्शन आदर्शवाद को दी गयी "प्रतिक्रियावादी" रियायत से अधिक कुछ नहीं, बहुत से बहुत , यह “संसार के सामने पदार्थवाद को अस्वीकार करते हुए भी उसे लुक-छिपकर मान लेने का ढंग है"। इस संबंध में एंगेल्स और मार्क्स की उपरोक्त कृतियों के सिवा एंगेल्स के नाम मार्क्स का १२ दिसम्बर १८६८ का पत्र भी देखना चाहिए। इसमें मार्क्स ने प्रसिद्ध प्रकृतिवादी टी० हेक्सली की एक उक्ति का उल्लेख किया है जिसमें उनका पदार्थवाद अधिक उभर कर आया है"। हेक्सली ने लिखा था : "जब तक हम वास्तव में देखने और सोचने की क्रियाएं करते हैं, तब तक हम संभवतः पदार्थवाद से बच नहीं सकते।" मार्क्स ने उनपर दोष लगाया है कि उन्होंने अज्ञेयवाद और ह्यूमवाद के लिए एक बार फिर नयी “राह" छोड़ दी थी। स्वतंत्रता और आवश्यकता के संबंध में मार्क्स का मत जानना हमारे लिए विशेषतया महत्वपूर्ण है। वह कहते हैं- “आवश्यकता वहीं तक अन्धी होती है जहां तक वह समझी नहीं जाती। स्वतंत्रता आवश्यकता का ज्ञान ही है।" (एंगेल्स : 'ड्यूहरिंग मत-खंडन')। इसका अर्थ है, प्रकृति की वस्तुगत नियमितता की और आवश्यकता के स्वतंत्रता में द्वंद्वात्मक रूपान्तर की स्वीकृति (उसी भांति जैसे अज्ञात किन्तु ज्ञेय “मूल वस्तु” का “प्रतीत वस्तु" के रूप में, “वस्तुसार” का “घटनाओं" के रूप में परिवर्तन का
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