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मार्क्स का सिद्धान्त

मार्क्स के क्रमबद्ध विचारों और सिद्धान्तों का नाम मार्क्सवाद है। १९ वीं सदी की तीन सैद्धान्तिक धाराएं - जिनके प्रतिनिधि रूप में संसार के तीन उन्नत देश थे - जर्मनी का क्लासिकल दर्शन , इंगलैण्ड का क्लासिकल राजनीतिक अर्थशास्त्र और फ्रान्स का समाजवाद , जिसके साथ वहां के क्रान्तिकारी सिद्धान्त भी मिले हुए थे - इन सबको आगे बढ़ाकर पूर्ण कर देनेवाली प्रतिभा मार्क्स की थी। मार्क्स के विचार कैसे संगत रूप से एक ही सूत्र में गुंथे हुए हैं, इस बात को उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं। इन विचारों का समष्टिरूप ही आधुनिक पदार्थवाद तथा आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद है, जो संसार के सभी सभ्य देशों के मज़दूर आन्दोलन का सैद्धान्तिक आधार और कार्यक्रम है। इसलिए यहां आवश्यक है कि मार्क्सवाद के मुख्य सार का याने मार्क्स के आर्थिक सिद्धान्तों का विवेचन करने के पहले मार्क्स के दृष्टिकोण की रूपरेखा दे दी जाय।

दार्शनिक पदार्थवाद

१८४४-१८४५ से- जब मार्क्स की विचारधारा निश्चित हो गयी थी- वह एक पदार्थवादी , विशेषकर फ़ायरबाख़ के अनुयायी रहे। आगे चलकर भी उन्होंने देखा कि फायरबाख़ की कमजोरी केवल यही है कि उनका पदार्थवाद काफ़ी संगत और व्यापक नहीं है। मार्क्स के लिए फायरबाख़ की " युग- प्रवर्तक" और समस्त संसार के लिए ऐतिहासिक महत्ता इस बात में थी कि उन्होंने पूरी तरह से हेगेल के आदर्शवाद से नाता तोड़ लिया था। उनकी महत्ता उसी पदार्थवाद को घोषित करने में थी जिसे “१८ वीं सदी में भी , विशेषकर फ्रान्स में, तत्कालीन राजनीतिक संस्थाओं, धर्म और धर्मशास्त्र से ही नहीं ... वरन् हर प्रकार के अतिभूतवाद (मेटा-फ़िज़िक्स)" ("स्वस्थ दर्शन" से भिन्न " उन्मत्त कल्पना की उड़ान" के अर्थ में) से लड़ना पड़ा था ('साहित्यिक विरासत' में 'पवित्र परिवार')। 'पूंजी' के प्रथम खंड के दूसरे संस्करण के उपसंहार में मार्क्स ने लिखा था : “ हेगेल के लिए मानव

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