मनोरमा ने सकुचाते हुए अपना लेख उनके सामने रख दिया और वहाँ से उठकर चली गयी। चक्रधर ने लेख पढ़ा, तो दंग रह गये। विषय था ऐश्वर्य से सुख! वे क्या हैं? काल पर विजय, लोकमत पर विजय, आत्मा पर विजय। लेख में इन्हीं तीनों अंगो की विस्तार के साथ व्याख्या की गयी थी? चक्रधर उन विचारों की मौलिकता पर मुग्ध तो हुए, पर इसके साथ ही उन्हें उनकी स्वच्छन्दता पर खेद भी हुआ। ये भाव किसी व्यंग्य में तो उपयुक्त हो सकते थे, लेकिन एक विचारपूर्ण निबन्ध में शोभा न देते थे। उन्होंने लेख समाप्त करके रखा ही था कि मनोरमा लौट आयी और बोली—हाथ जोड़ती हूँ बाबूजी, इस लेख के विषय में कुछ न पूछिएगा, मैं इसी के भय से चली गयी थी।
चक्रधर—पूछना तो बहुत कुछ चाहता था, लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो न पूछूँगा। केवल इतना बता दो कि ये विचार तुम्हारे मन में क्योंकर आये? ऐश्वर्य का सुख विहार और विलास तो नहीं, यह तो ऐश्वर्य का दुरुपयोग है। यह तो व्यंग्य मालूम होता है।
मनोरमा—आप जो समझिए।
चक्रधर—तुमने क्या समझकर लिखा है?
मनोरमा—जो कुछ आँखों देखा, वही लिखा।
यह कहकर मनोरमा ने वह लेख उठा लिया और तुरन्त फाड़ कर खिड़की के बाहर फेंक दिया। चक्रधर 'हाँ हाँ' करते रह गये। जब वह फिर अपनी जगह पर आकर बैठी, तो चक्रधर ने गम्भीर स्वर से कहा—तुम्हारे मन में ऐसे कुत्सित विचारों को स्थान पाते देखकर मुझे दुख होता है।
मनोरमा ने सजल-नयन होकर कहा—अब मैं ऐसा लेख कभी न लिखूँगी।
चक्रधर—लिखने की बात नहीं है। तुम्हारे मन में ऐसे भाव आने ही न चाहिए। काल पर हम विजय पाते हैं, अपनी सुकीर्ति से, यश से, व्रत से। परोपकार ही अमरत्व प्रदान करता है। काल पर विजय पाने का अर्थ यह नहीं है कि कृत्रिम साधनों से भोगविलास में प्रवृत्त हों, वृद्ध होकर जवान बनने का स्वप्न देखें और अपनी आत्मा को धोखा दें। लोकमत पर विजय पाने का अर्थ है, अपने सद्विचारों और सत्कर्मों से जनता का आदर और सन्मान प्राप्त करना। आत्मा पर विजय पाने का आशय निर्लज्जता या विषय-वासना नहीं, बल्कि इच्छाओं का दमन करना और कुवृत्तियों को रोकना है। यह मैं नहीं कहता कि तुमने जो कुछ लिखा है, वह यथार्थ नहीं है। उनकी नग्न यथार्थता ही ने उन्हें इतना घृणित बना दिया है। यथार्थ का रूप अत्यन्त भयंकर होता है और हम यथार्थ ही को आदर्श मान लें, तो संसार नरक के तुल्य हो जाय। हमारी दृष्टि मन की दुर्बलताओं पर पड़नी चाहिए, बल्कि दुर्बलताओं में भी सत्य और सुन्दर की खोज करनी चाहिए। दुर्बलताओं की ओर हमारी प्रवृत्ति स्वयं इतनी बलवती है कि उसे उधर ढकेलने की जरूरत नहीं। ऐश्वर्य का एक सुख और है जिसे तुमने न जाने क्यों छोड़ दिया। जानती हो, वह क्या है?