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कायाकल्प]
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कोई और बेटा हो सकता है। उनकी सेवा में अपने प्राण तक दे सकता हूँ, किन्तु यदि इस भक्ति और आत्मा की स्वाधीनता में विरोध आ पड़े, तो मुझे आत्मा की रक्षा करने में जरा भी संकोच न होगा। अगर मुझे यह भय न होता कि माताजी अवज्ञा से रो रोकर प्राण दे देंगी और पिताजी देश-विदेश मारे-मारे फिरेंगे, तो मैं यह असह्य यातना न सहता। लेकिन मैं सब-कुछ तुम्हारे ही फैसले पर छोड़ता हूँ, केवल इतनी ही याचना करता हूँ कि मुझपर दया करो।'

दोनों पत्रों को डाकघर में डालते हुए वह मनोरमा को पढ़ाने चले गये।

मनोरमा बोली—आज आप बड़ी जल्दी आ गये; लेकिन देखिए, मै आपको तैयार मिली। मैं जानती थी कि आप आ रहे होंगे, सच

चक्रधर ने मुस्कराकर पूछा—तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मै आ रहा हूँ?

मनोरमा—यह न बताऊँगी; किन्तु मैं जान गयी थी। अच्छा कहिए तो आपके विषय में कुछ और बताऊँ। आज आप किसी न किसी बात पर रोये हैं। बताइए, सच है कि नहीं?

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा—झूठी बात है, मैं क्यों रोता, कोई बालक हूँ?

मनोरमा खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली-बाबूजी, कभी कभी आप बड़ी मौलिक बात कहते हैं। क्या रोना और हँसना बालकों ही के लिए हैं? जवान और बूढे नहीं रोते?

चक्रधर पर उदासी छा गयी। हँसने की विफल चेष्टा करके बोले—तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारे दिव्य ज्ञान की प्रशंसा करूँ। वह मैं न करूँगा।

मनोरमा—अन्याय की बात दूसरी है; लेकिन आपकी आँखें कहे देती हैं कि आप रोये हैं। (हँसकर) अभी आपने वह विद्या नहीं पढ़ी, जो हँसी को रोने का और रोने को हँसी का रूप दे सकती है।

चक्रधर—क्या आजकल तुम उस विद्या का अभ्यास कर रही हो?

मनोरमा—कर तो नहीं रही हूँ; पर करना चाहती हूँ।

चक्रधर—नहीं मनोरमा, तुम वह विद्या न सीखना। मुलम्मे की जरूरत सोने को नहीं होती।

मनोरमा—होती है, बाबूजी, होती है। इससे सोने का मूल्य चाहे न बढ़े; पर चमक बढ़ जाती है। आपने महारानी की तीर्थ यात्रा का हाल तो सुना ही होगा। अच्छा बताइए, आप इस रहस्य को समझते हैं?

चक्रधर—क्या इसमें भी कोई रहस्य है?

मनोरमा—और नहीं क्या! मै परसों रात को बड़ी देर तक वहीं थी। हर्षपुर के राजकुमार आये हुए थे। उन्हीं के साथ गयी हैं।

चक्रधर—खैर; होगा, तुमने आज क्या काम किया है? लाओ, देखूँ।

मनोरमा—एक छोटा-सा लेख लिखा है; पर आपको दिखाते शर्म आती है।

चक्रधर—तुम्हारे लेख बहुत अच्छे होते हैं। शर्म की क्या बात है?