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कायाकल्प]
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हूँ। तुम देखोगे कि उनके जैसे आदमी इसी द्वार पर नाक रगड़ेंगे। आदमी को बिगड़ते देर लगती है बनते देर नहीं लगती। ईश्वर ने चाहा, तो एक बार फिर धूम से तहसीलदारी करूँगा।

चक्रधर ने देखा कि अब अवसर आ गया है। इस वक्त चूके तो फिर न जाने कब ऐसा अच्छा मौका मिले। आज निश्चय ही कर लेना चाहिए। बोले—उन्हें तो कोई पशोपेश नहीं। पशोपेश जो कुछ होगा, आप ही की तरफ से होगा। बात यह है कि वह कन्या मुंशी यशोदानन्दन की पुत्री नहीं है।

वज्रधर—पुत्री नहीं है। वह तो लड़की ही बताते थे। तुम्हारे सामने की तो बात है। खैर, पुत्री न होगी, भतीजी होगी; भाञ्जी होगी, नातिन होगी, बहन होगी। मुझे आम खाने से मतलब है, या पेड़ गिनने से? जब लड़की तुम्हें पसन्द है और वह अच्छा दहेज दे सकते हैं, तो मुझे और किसी बात की चिन्ता नहीं।

चक्रधर—वह लड़की उन्हें किसी मेले में मिली थी। तब उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी। उन्हें उसपर दया आ गयी, घर लाकर पाला, पढ़ाया लिखाया।

वज्रधर—(स्त्री से) कितना दगाबाज आदमीं है। क्या अभी तक लड़की के मा-बाप का पता नहीं चला?

चक्रधर—जी नहीं, मुंशीजी ने उनका पता लगाने की बड़ी चेष्टा की, पर कोई फल न निकला।

वज्रधर—अच्छा, तो यह किस्सा है। बड़ा झूठा श्रादमी है, बना हुआ मक्कार।

निर्मला—जो लोग मीठी बातें करते, उनके पेट में छुरी छिपी रहती है। न जाने किस जाति की लड़की है। क्या ठिकाना। तुम साफ-साफ लिख दो, मुझे नहीं करना है। बस!

वज्रधर—मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूँ। तुम्हीं ने इतने दिनों नेक नामी के साथ तहसीलदारी नहीं की है। मैं खुद जानता हूँ, ऐसे धोखेबाजों के साथ कैसे पेश आना चाहिए।

खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुंशीजी ने कहा—कमल दावात लाओ, मैं इसी वक्त यशोदानन्दन को खत लिख दूँ। बिरादरी का वास्ता न होता, तो हरजाने का दावा कर देता।

चक्रधर आरक्त मुख और संकोच रुद्ध कण्ठ से बोले—मैं तो वचन दे आया हूँ।

निर्मला—चल, झूठा कहीं का, खा मेरी कसम!

चक्रधर—सच अम्माँ, तुम्हारे सिर की कसम।

वज्रधर—तो यह क्यों नहीं कहते कि तुमने सब कुछ आप ही आप तय कर लिया है। फिर मुझसे क्या सलाह पूछते हो? आखिर विद्वान् हो, बालिग हो, अपना भला-बुरा सोच सकते हो, मुझसे पूछने की जरूरत ही क्या, लेकिन तुमने लाख एम॰ ए॰ पास कर लिया हो, वह तजुरबा कहाँ से लाओगे, जो मुझे है। इसी लिए तो