खोल दी थीं। वह घर से निकलने की भूल स्वीकार करती थी। लेकिन कुँवर साहब का उसको मनाने न जाना बहुत अखर रहा था। इस अपराध का इतना कठोर दण्ड। ज्यों-ज्यों वह उस स्थिति पर विचार करती थी, उसका अपमानित हृदय और भी तड़प उठता था।
कुँवर माहब ने कमरे में कदम रखते ही कहा—रोहिणी, ईश्वर ने आज हमारी अमिलाषा पूरी की। जिस बात की आशा न थी, वह पूरी हो गयी।
रोहिणी—तब तो घर में रहना और भी मुश्किल हो जायगा। जब कुछ न था, तभी मिजाज न मिलता था। अब तो आकाश पर चढ़ जायगा। काहे को कोई जीने पायेगा?
विशालसिंह ने दुखित होकर कहा—प्रिये, यह इन बातों का समय नहीं है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने हमारी विनय सुन ली।
रोहिणी—जब अपना कोई रहा ही नहीं, तो राजपाट लेकर चाँगो?
विशालसिंह को क्रोध आया; लेकिन इस भय से कि बात बढ़ जायगी, कुछ बोले नहीं। वहाँ से वसुमती के पास पहुँचे। वह मुँह लपेटे पड़ी हुई थी। जगाकर बोले—क्या सोती हो, उठो खुशखबरी सुनायें।
वसुमती—पटरानीजी को तो सुना ही आये, मैं सुनकर क्या करूँगी। अब तक जो बात मन में थी, वह आज तुमने खोल दी। तो यहाँ बचा हुआ सत्तू खानेवाले पाहुने नहीं हैं।
विशालसिंह—क्या कहती हो? मेरी समझ में नहीं आता।
वसुमती—हाँ, अभी भोले नादान बच्चे हो, समझ में क्यों आयेगा। गरदन पर छुरी फेर रहो हो, ऊपर से कहते हो कि तुम्हारी बातें समझ में नहीं आतीं। ईश्वर मौत भी नहीं दे देते कि इस आये दिन की दाँता-किल किल से छूटती। यह जलन अब नहीं सही जाती। पीछेवाली आगे आयी, आगेवाली कोने में। मैं यहाँ से बाहर पाँव निकालती, तो सिर काट लेते, नहीं तो कैसी खुशामदें कर रहे हो। किसी के हाथों में भी जस नहीं, किसी को लातों में भी जस है।
विशालसिंह दुखी होकर बोले—यह बात नहीं है, वसुमती! तुम जान बूझकर नादान बनती हो। मैं इधर ही आ रहा था। ईश्वर से कहता हूँ, उसका कमरा अँधेरा देखकर चला गया, देखें क्या बात है।
वसुमती—मुझसे बातें न बनाओ, समझ गये। तुम्हें तो ईश्वर ने नाहक मँछे दे दीं। औरत होते, तो किसी भले आदमी का घर बसता। जाँघ-तले की स्त्री सामने से निकल गयी और तुम टुकुर-टुकुर ताकते रहे। मैं कहती हूँ, आखिर तुम्हें यह क्या हो गया है? उसने कहीं कुछ कर-करा तो नहीं दिया? जैसे काया ही पलट गयी। जो एक औरत को काबू में नहीं रख सकता, वह रियासत का भार क्या सँभालेगा?
यह कहकर उठी और झल्लायी हुई छत पर चली गयी। विशालसिंह कुछ देर