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[कायाकल्प
 

रामप्रिया—एक समय सखि सुअर सुन्दर! जवानी में कौन नहीं सुन्दर होता?

वसुमती—उसके माथे से तो तुम्हारे तलुवे अच्छे। सात जन्म ले, तो भी तुम्हारे गर्द को न पहुँचे।

विशालसिंह—मैं मेहर-बस हूँ?

वसुमती—और क्या हो?

विशालसिंह—मैं उसे ऐसी ऐसी बातें कहता हूँ कि वह भी याद करती होगी। घंटों रुलाता हूँ।

वसुमती—क्या जाने, यहाँ तो जब देखती हूँ, उसे मुस्कराते देखती हूँ। कभी आँखों में आँसू न देखा।

रामप्रिया—कड़ी बात भी हँसकर कही जाय, तो मीठी हो जाती है।

विशालसिह—हँसकर नहीं कहता। डाँटता हूँ, फटकारता हूँ। लौंडा नहीं हूँ कि सूरत पर लट्टू हो जाऊँ।

वसुमती—डाँटते होंगे, मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे ही जैसे हो जाते हैं। कोई नयी बात नहीं है। मैं तुमसे लाख रूठी रहूँ, लेकिन तुम्हारा मुँह जरा भी गिरा देखा और जान निकल गयी। सारा क्रोध हवा हो जाता है। वहाँ जब तक जाकर पैर न सहलाओ, तलुओं से आँखे न मलो, देवीजी सीधी ही नहीं होतीं। कभी-कभी तुम्हारी लम्पटता पर मुझे हँसी आती है। आदमी कड़े दम चाहिए। जिसका अन्याय देखे, उसे डाँट दे, बुरी तरह डाँट दे, खून पी लेने पर उतारू हो जाय। ऐसे ही पुरुषों से स्त्रियाँ प्रेम करती हैं। भय बिना प्रीति नहीं होती। आदमी ने स्त्री की पूजा की कि वह उनकी आँखों से गिरा। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरत भी भकुए और मर्द को पहचानती है। जिसने सच्चा आसन जमाया और लगाम कड़ी रखी, उसी की जय है। जिसने रास ढीली कर दी, उसकी कुशल नहीं।

रामप्रिया मुँह फेरकर मुस्करायी और बोली—बहन, तुम सब गुर बताये देती हो, किसके माथे जायगी?

वसुमती—हम लोगों की लगाम कब ढीली थी?

रामप्रिया—जिसकी लगाम कभी कड़ी न थी, वह आज लगाम तानने से थोड़े ही काबू में आयी जाती है, और भी दुलत्तियाँ झाड़ने लगेगी।

विशालसिंह—मैंने तो अपनी जान में कभी लगाम ढीली नहीं की थी। आज ही देखो, कैसी फटकार बतायी।

वसुमती—क्या कहना है, जरा मँछे खड़ी कर लो, लाओ, पगिया मैं सवार दूँ। यह नहीं कहते कि उसने ऐसी-ऐसी चोटें कीं कि भागते ही बनी।

सहसा किसी के पैरों की आहट पाकर वसुमती ने द्वार की ओर देखा! रोहिणी रसोई के द्वार से दबे-पाँव चली जा रही थी। मुँह का रंग उड़ गया। दाँतों से ओठ दबाकर बोली—छिपी खड़ी थी। मैंने साफ देखा। अब घर में रहना मुश्किल है। देखो, क्या रंग लाती है।